Wednesday, January 18, 2017

गज़ब ज़िन्दगी-अजब ज़िन्दगी

          
 सुबह नींद की ख़ुमारी पूरी तरह टूटी भी नहीं थी कि फोन की घण्टी घनघनाई। रिसीव किया तो उधर से आवाज़ आई,"तुम्हें पता है दीदी...नारायण मौसा नहीं रहे...। आज सुबह ही उन्होंने अन्तिम साँस ली है...।"

आश्चर्य...सुन कर कोई प्रतिक्रिया नहीं...। न हैरानी...न दुःख...बस एक हल्का-सा उच्छवास...अच्छा हुआ, खुद मुक्त हो गए और साथ ही दूसरों को भी मुक्त कर दिया...। एक शतक पार कर चुके मौसा जी का रहना-ना रहना बराबर था...। पूरी तरह अशक्त हो चुके मुर्दा-से शरीर को वे बस ढोये जा रहे थे। उनके बेटे उनकी अशक्तता के बोझ से घबरा कर अक्सर कहते,"इनके कारण तो कहीं आना जाना दुश्वार है। ना किसी की खुशी में शामिल हो सको और ना किसी के गम में शरीक हो सको...। यह भी क्या जिंदगी है...।" बड़े बेटे-बहू ने साफ इंकार कर दिया,"मैं इनका बोझ नहीं ढो सकता...। हम लोगों को खुद किसी के सहारे की जरूरत है, इन्हें क्या सहारा देंगे...?"

उनका यह कहना तर्कसंगत था। दो-दो बार हार्टअटैक झेल चुके, खुद सत्तर का अंक पार कर चुके भैया का यह कहना ठीक भी था और नहीं भी...। नहीं इसलिए कि मां-बाप किसी कारण से अशक्त होने के बावजूद अपने बच्चों को त्यागते नहीं...खुद परेशान रहकर भी उनके लालन-पालन को बोझ नहीं समझते, फिर अपनी अशक्तता के क्षणों में एक बच्चे सरीखे हो चुके अपने मां-बाप को हम बोझ क्यों समझते हैं...? खैर! आज के इस तरक्कीपसंद युग में या बड़ी साधारण सी और आम बात हो गई है...। बड़े बेटे के इनकार पर छोटे बेटे-बहू के कंधो पर यह  बोझ आ गिरा तो दोनों ही मजबूर जिंदगी जीने लगे...। नारायण मौसा को तरह-तरह की बीमारी थी |  पैर सूज कर इस तरह दुखता कि चलना फिरना दुश्वार हो जाता...नित्य क्रिया के लिए उठना भी मुश्किल...। साफ-सफाई के बावजूद उनका कमरा एक अजीब तरह की दुर्गंध से भरा रहता...। एक नारकीय जीवन जीते हुए वह अपने एकांतवास से इस कदर घबरा जाते कि अक्सर चुपके से मौका पाकर पैर घिसटते हुए घर से बाहर निकल कहीं दूर चले जाते...। फिर क्या, पता चलते ही उनकी ढुँढाई शुरु होती...। बड़ी मुश्किल से वह मिलते तो बेटा एकदम बौरा जाता,"हम लोगों के जाने के बाद ही आपको जाने का इरादा है? पूरे निन्यानबे साल के हो गए हैं, अब मुक्त क्यों नहीं हो जाते...?"

सुनकर एक सन्नाटा पसर जाता...बाहर भी और नारायण मौसा के भीतर भी...। मौत क्या मेरे हाथ में है...? आखिर मैं ज़िन्दा क्यों हूँ...? कौन सा पाप किया था, जो मैं इस नरक में हूँ...? पत्नी पुण्यात्मा थी, पचास में ही चल दी...। काश ! मैं भी चला जाता...। बेटा बड़बड़ा कर चला जाता तो वह एकांत में फूट-फूट कर रोते, चुप होते...अपनी जिंदगी का लेखा-जोखा करते और फिर बिना खाए पिए सो जाते। उनके उस दर्द की सुनवाई कहीं नहीं थी। ना इस जीते जागते संसार में और ना उस ऊपरी जगत में...। दूसरे के फटे में टांग अड़ाने का रिवाज हमारी दुनिया में नहीं है और ना किसी में हिम्मत है बोझ बाँटने की...। हर इंसान अपनी जिंदगी को पहले नंबर पर रखता है...। दूसरों की जिंदगी कहाँ जा रही है, उसे जानकर या उस में कूद कर वह ना किसी से रिश्ता बिगाड़ना चाहता है और ना उस बेवजह के बोझ को अपने कंधे लादने की बेवकूफी करना चाहता है...। जो ऐसा करते हैं वह बिरले हैं और उंगलियों पर गिने जा सकते हैं...। खैर! किसी तरह नारायण मौसा ने अपनी जिंदगी का शतक पार कर ही लिया और अपनी तड़पती, लरजती जिंदगी को बाय कहकर खुद ही मुक्त नहीं हुए बल्कि अपने उस भरे पूरे परिवार को भी मुक्त कर दिया।  सौ साल पूरे कर के जाने वाले नारायण मौसा के मरने का दुख किसी को नहीं था...। दुख पर गर्व भारी पड़ गया था। आखिर पोते-पड़पोते का मुंह देख कर जाने वाले कितने होते हैं...? कितने लोग इतनी लंबी उम्र पाते हैं...? बड़े भाग्यवान थे, इतना बड़ा भरा-पूरा परिवार पीछे छोड़ कर गए हैं। हर कोई उनका पैर छूकर आशीर्वाद ले रहा था,"बाबाऽऽऽ, मुझे आशीर्वाद दो, मैं भी आपकी तरह पोते-पड़पोते ही नहीं बल्कि उससे भी आगे की पीढ़ी देखने के लिए जिंदा रहूँ...। पड़पोती ने अपनी दो माह की बच्ची को भी उनके चरणों में डाल दिया," परबाबा का आशीर्वाद लो बिटिया...।" किसी की आँख में आँसू की एक बूंद नहीं...बाबा स्वर्ग जा रहे हैं...। अर्थी पर उनका निर्जीव तन रखते ही चारों तरफ से फूल बरसने लगे...। गेंदे के फूल की बड़ी-बड़ी मालाओं ने उनका पूरा जर्जर तन ढँक लिया...। हरे राम की ओढ़नी के नीचे उनका बीता हुआ नारकीय जीवन कहीं दुबक गय...। बाहर बैंड बाजा बजने लगा और फिर ‘राम नाम सत्य’ का उद्घोष किसी हाहाकार की तरह उठा और ढेरों गाड़ियाँ उनकी अर्थी के पीछे चल दी, घाट की ओर, उन्हें अंतिम विदाई देने...। आंखों के आगे से अर्थी ओझल हो गई और साथ ही बैंड बाजा की सुरीली आवाज भी...पर पीछे छोड़ गई  ऐसे अनसुलझे सवालों  को, जो सदियों से इंसान का पीछा कर रहे हैं, पर आज तक कोई भी उसका हल नहीं निकाल पाया...।

यह सारे सवाल जिंदगी से ही जुड़े हुए हैं...। आखिर क्या है जिंदगी? कितने रंगों से रंगी हुई है जिंदगी...? कहीं बच्चे बोझ बन जाते हैं, तो कहीं माता पिता...। हर जिंदगी अलग-अलग खानों में क्यों बँटी हुई है? एक इंसान झोपड़पट्टी में रहते हुए कई बार अपने बेटों का पेट भरने के लिए खुद भूखा सो जाता है...। पीठ पर बोरी लाद कर ट्रक पर चढ़ाता है और हाथ में आए चंद रुपयों को जोड़ कर अपने बेटों को पढ़ा कर बुलंदी पर पहुंचाता है...। बेटों को इस लायक बनाता है कि वह आलीशान बंगलों में रह सके, मोटरगाड़ी का सुख उठा सके, अपने रुतबे के चलते अपने बच्चों का ब्याह ऊँचे घरानों में कर सकें और उन्हें आसमान छूने का हौसला दे सके...पर उन्हें यह सब देने के बाद वह दाता इतना खाली कैसे हो गया...? लुटाते लुटाते झोली भी खाली हो जाती है, यह तो सुना था पर हृदय में भरी भावनाएं कैसे खाली हो जाती हैं... इसे आज की दुनिया में शिद्दत से महसूस किया जा सकता है...।

कहते हैं कि इंसानी जिंदगी बड़ी मुश्किल से मिलती है और हर मायने में वह दूसरी जिंदगियों से इतर बेहद गजब की है, पर उस गजब की जिंदगी को हम इंसानो ने अपने स्वार्थ के चलते क्या अजब सी नहीं बना दी है...?