Sunday, September 29, 2013

कुछ सवाल यूँ ही...

कुछ दिन पहले मैं अपने परिवार के साथ शॉपिंग मॉल घूमने गई थी। काफ़ी देर घूमने और खरीददारी करने के बाद थक कर निचली मंज़िल पर बने पत्थर पर बैठ कर सुस्ताने लगी। मेरे आसपास काफ़ी लोग बैठे सुस्ता रहे थे। कुछ लोग सामने के स्टॉल से लेकर पैटीज़, समोसा और पेस्ट्री का मज़ा ले रहे थे, तो कुछ अपने बच्चों के साथ दौड़-धूप में लगे थे।
छुट्टी का दिन होने की वजह से काफ़ी भीड़ थी। गहमागहमी से लबरेज़ माहौल में भी कुछ ऐसे लोग थे, जिन्हें आसपास की कोई सुध ही नहीं थी। उनके इस तरह बेसुध होने का कारण कुछ और नहीं, बल्कि उनका मोबाइल था। कोई सामने खड़ा ज़ोर-ज़ोर से बात करता पता नहीं किस बात पर ठहाका मार रहा था, तो कोई कोने में खड़ा अपने मुँह पर हाथ रखे फुसफुसा रहा था। और तो और, मेरी बगल में बैठा एक युवक फोन पर अपने दोस्त से अपनी प्रेम-कहानी इस तरह बयाँ कर रहा था, मानो उसने कोई किला फ़तह किया हो...या सोहनी-महिवाल के बाद इतिहास में उन्हीं का नाम दर्ज़ होना हो। उसकी कहानी से ऊब कर मैं उठने की सोच ही रही थी कि मेरी निगाह सामने बैठी करीब तीस-पैंतीस साल की महिला पर पड़ी।

महिला के हाथ में उसका मोबाइल फोन था और उस फोन के कीबोर्ड पर बड़ी तीव्र गति से उसकी उँगलियाँ नाच रही थी। उसके हाव-भाव से ऐसा लग रहा था जैसे उसे आसपास के माहौल से कोई मतलब ही न हो। उसे तो अपने छोटे से बच्चे से भी उस समय कोई मतलब नज़र नहीं आ रहा था। बच्चा बार-बार उससे खाने की चीज़ें माँग रहा था और वह उसे धकेल कर फिर मोबाइल पर टाइप करने में खो जाती थी।  उस समय उसका पूरा वजूद एक अजीब से नशे की गिरफ़्त में नज़र आ रहा था। मुझे घबराहट-सी हुई। ऐसा लग रहा था जैसे आधे से अधिक दुनिया एक अनकहे नशे की गिरफ़्त में हो गई है। यह नशा और किसी का नहीं, बल्कि आधुनिक गैज़ेट्स का है...।
कहते हैं, नशा कोई भी हो, अपनी सीमा-रेखा लाँघने के बाद इंसान को एक ऐसे खतरनाक मोड़ पर लाकर खड़ा कर देता है जहाँ सोचने-समझने की सारी शक्ति ख़त्म हो जाती है और आदमी बर्बादी की एक ऐसी कग़ार पर अपने को पाता है, जहाँ से वापस लौटना मुश्किल होता है...।
आज के तकनीकीकरण के युग में दुनिया बहुत आगे निकल गई है। इंसान सात समन्दर पार बैठे अपनों से न केवल बात कर सकता है बल्कि जब चाहे उनसे रू-ब-रू भी हो सकता है, और इसमें सबसे ज़्यादा मदद जिसने की है, वो हैं-गैज़ेट्स...। आज मोबाइल, कम्प्यूटर न सिर्फ़ देश-दुनिया की तरक्की में सहयोग कर रहे हैं, बल्कि दूर-दराज़ की दूरियाँ मिटा कर एक-दूसरे को करीब लाने का काम भी कर रहे हैं, पर क्या किसी की निगाह इस ओर गई है कि यह तकनीक कुछ लोगों के लिए एक नशा बन गई है।

मेरा मानना है कि दुनिया में कुछ भी बुरा नहीं होता। कई स्थिति-परिस्थितियों में शराब भी नुकसान पहुँचाने की जगह फ़ायदा पहुँचा जाती है। पर कितने लोग इसे सिर्फ़ फ़ायदे के मद्देनज़र पीने की बात पर अमल करते हैं...? बस थोड़ी सी ही तो पी है...करते-करते ढेर सारी पी जाते हैं और नशे में डूब कर न केवल अपना दिल-जिगर नष्ट करते हैं, बल्कि अपनों को भी खो देते हैं...। मेरी निगाह में गैज़ेट्स का नशा भी ऐसा ही है...। इसमें भी आजकल खास तौर से मोबाइल...। मोबाइल से आप अपने दोस्तों से, अपने अपनों से ढेर सारी बातें कर सकते हैं, हर पल उनका हालचाल जान सकते हैं, नए दोस्त बना सकते हैं, उन्हें सन्देशे भेज सकते हैं...।  देखा जाए तो मोबाइल बहुत उपयोगी गैज़ेट है, पर कुछ लोगों ने जिस कदर इसे नशे की हद तक अपना लिया है, उन्हें क्या कभी यह अहसास होता है कि इस नशे के कारण वे क्या कुछ खोते जा रहे हैं। मैसेज के आदान-प्रदान के चक्कर में वे दिन भर अपनी उँगलियों को कसरत कराते रहते हैं...। फ़ेसबुक, वाट्सएप, वी चैट आदि एप्लीकेशन्स के माध्यम से जो जाने-अनजाने उनके दोस्त बन जाते हैं, बस वहीं तक उनकी दुनिया सिमट जाती है...। इस दौरान गुपचुप तरीके से दोस्ती, प्यार, नफ़रत...बहुत कुछ पनप जाता है और इस पनपने के बीच अपनों का हाथ और साथ कब छूट जाता है, उन्हें होश ही नहीं रहता...। अगर किसी का मैसेज नहीं आता तो एक बेचैनी-सी तारी होने लगती है। अपनों के बीच आप मौजूद हैं, कहीं घूमने गए हैं, डाइनिंग टेबल पर हैं, हर जगह मोबाइल को सीने से लगाए हैं...। आपके आसपास आपके तथाकथित दोस्तों की दुनिया है, पर कभी क्या इस सवाल का जवाब आपने अपने-आप से पूछा है कि इस दुनिया में आपके अपने कहाँ हैं...? उन्हें जिस समय आपकी ज़रूरत है, उस वक़्त आप कहाँ होते हैं...? जाने-अनजाने लोगों पर सिर्फ़ बातचित के माध्यम से आप भरोसा कर लेते हैं, पर इस दौरान आप अपने अपनों का भरोसा किस कदर तोड़ देते हैं...कभी अहसास है इसका...?

गैज़ेट्स का उपयोग बेशक कीजिए, पर इसे नशा न बनने दीजिए...। कहीं ऐसा न हो, जब तक इस नशे से आप उबरने का सोचें, तब तक बहुत देर हो चुकी हो...।

(सभी चित्र गूगल से साभार )