Monday, January 24, 2011

आत्मा को सहमाता एक सच

( अंतिम किस्त )


       यह कौन सा सच है जिसने हम लोगों को पूरी तरह से डरा दिया है ...। क्या वह जहाँ इतना गहरा अन्धेरा है कि हाथ को हाथ सुझाई नहीं देता...। जहाँ सच और झूठ में फ़र्क करना मुश्किल हो गया है...। या वह सच जहाँ दुनिया में बस भीड़ ही भीड़ है और उस भीड़ के कारण दम घुटता है या वह जहाँ सिर्फ़ अपनी मंज़िल तक पहुँचने की जल्दी में ट्रैफ़िक नियमों को ताक पर रख कर एक-दूसरे को कुचलते लोग निकल जाते हैं या...या सड़क पर बिखरा किसी बदनसीब का खून  भी कीचड़ सरीखा लगता है और लोग मुँह ढाँके आगे निकल जाते हैं...। या हवस का वह सच जो अन्धेरे से निकल कर अब उजाले पर भी हावी हो गया है...। आदमी बीमार पड़ जाए , किसी मुसीबत में पड़ जाए तो कहाँ सहारा है...? अस्पताल और कानून का...? अपनों का...? या फिर भगवान का...?
       यह सभी जानते हैं कि सच को उजागर करने में मीडिया का बहुत बड़ा हाथ होता है...। पर आज के युग में अखबार-पत्रिकाओं को पढ़ना महज एक आदत सी बन गई है । चाय की चुस्कियों के बीच गर्मागर्म खबरें पढ़ना लोगों को जैसे राहत देने लगा है...। चाय खत्म तो खाली वक़्त में वहीं ख़बरें जैसे टाइमपास का बहाना बन जाती है...। पान की दुकान हो , बस की लम्बी लाइन हो या आफ़िस का खाली समय...ये ख़बरें बहस का मुद्दा बन कर आदमी को अब कुछ सोचने और करने का नहीं , बल्कि समय बिताने का बहाना बन जाती हैं...। जब तक गाज अपने ऊपर नहीं गिरती , तब तक किसी को अहसास भी नहीं होता कि ज़िन्दगी सही मायनो में है क्या ?
       आज आदमी दूसरों से कम , अपने से ज्यादा डरा हुआ है...। अपने को कुछ हो गया तो क्या करेंगे...? इस डर को इलेक्ट्रानिक मीडिया ने बढ़ा तो दिया है पर उसे कम करने का कोई रास्ता नहीं बताया...।
       अभी ज्यादा अर्सा नहीं हुआ है जब कुछ अस्पतालों का सच टेलीविज़न के एक चैनल पर बड़े जोर-शोर से दिखाया जा रहा था । पहले जब कोई गम्भीर रूप से बीमार पड़ता था तो दिल्ली-मुम्बई जैसे बड़े शहरों के बड़े अस्पतालों की ओर भागता था , ज़िन्दगी की आस लेकर...पर इधर आँखों से इन बड़े अस्पतालों का सच देख कर न जाने कितने लोग सहम गए होंगे...कितने मायूस हो गए होंगे और कितने लोग अपने ही शहर या गाँव के डाक्टरों की क्लिनिक के बाहर खड़ी बीमारों की भीड़ में शामिल हो गए होंगे...।
        जिस समय पूरे देश में डेंगू , मलेरिया , चिकनगुनिया का कहर बरपा था , उस समय जैसे सारे अस्पताल भर गए थे...। बड़े से बड़े अस्पताल में कहीं बेड कम था तो कहीं कमरा...। ढेरों मरीज बरामदे में अपने तीमारदारों के साथ पड़े थे तो कोई बड़ी बात नहीं थी...। यह दृश्य तो हमारे लिए आम था पर जब एक चैनल ने अपने गुप्त कैमरे से दिखाया कि किस तरह कुछ बड़े अस्पतालों में एक ही बेड पर डेंगू के तीन-तीन मरीज पड़े हैं तो जैसे रुह ही काँप गई । डाक्टर सलाह देते हैं कि बीमार को स्वस्थ लोगों से अलग साफ़-सुथरी जगह , साफ़-सुथरे बिस्तर पर रखिए...। उसे शान्त वातावरं में आराम करने दीजिए...। पर क्या तथाकथित नामी-दामी अस्पतालों के डागदर बाबू यह बताएँगे कि डेंगू जैसी खतरनाक बीमारी से ग्रसित कमजोर इन्सान को गन्दे बिस्तर पर दो अनजान मरीजों के साथ मरने के लिए छोड़  देना कितना उचित है और यह किस फ़र्ज़ की ओर इशारा करता है...? या इससे इतर चीख-चीख कर अपने हिडेन कैमरे के माध्यम से इस सच को बयान कर के कमजोर आदमी को और कमजोर बना कर दूसरे दिन ये चैनल वाले पता नहीं किस कारण से खामोशी की चादर ओढ़ कर किस सच की ओर इशारा करते हैं...। हमारा देश जैसे दो टुकड़ों में बँटा है...या तो यहाँ बहुत अधिक अमीर हैं या बहुत अधिक गरीब...। गरीब तो पहले से ही अधमरा है, पर पूरी दुनिया के अमीरों में शामिल हमारे देश के अरब-खरबपति अपने लिए अरबों का महल बनवा सकते हैं , तो क्या कभी इन अस्पतालों की हालत को सुधारने की बात नहीं सोच सकते...?
        अपने ही शहर में गोबरछत्ते की तरह अनगिनत अस्पताल खुले हैं पर गम्भीर रूप से बीमार पड़ने पर कहाँ जाएँ , कुछ समझ में नहीं आता...। दुनिया के इस हमाम में सब नंगे हैं , उसमें से हयादार को ढूँढें तो कैसे...?

No comments:

Post a Comment