Wednesday, December 22, 2010

उफ़ ! भयानक अनुभव से गुजरते हुए...( 3 )

( किस्त - बाईस )



पी.जी.आई के नर्कवास के दौरान एक और ऐसा अनुभव हुआ जिसने उस क्षण मन में एक अजीब सी दहशत पैदा कर दी थी...।
               दिन के यही कोई ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे रहे होंगे । रोज भाई-बहन और भतीजा अंकुर टैक्सी से कानपुर से लखनऊ अप-डाउन करते थे...। जब ये लोग सुबह आ जाते तो रात को मेरे साथ रुका सदस्य या तो होटल चला जाता या वापस कानपुर...। स्नेह के पास हर वक़्त हम तीन-चार लोग बने रहने की कोशिश करते थे । उस दिन भी यही तैयारी थी कि अचानक हमारी मंजिल के वेटिंग रूम के पास मुझे भीड़ दिखी...। उत्सुकतावश मैं वहाँ गई तो सन्न रह गई...। नीचे बरामदे में काफ़ी गहरा काला धुआँ भरा हुआ था...। लोगों के शोरगुल के साथ धड़ाधड़ खिड़कियों के शीशे टूटने की आवाज़ माहौल को और भी दहशतनुमा बना रही थी ।
              नीचे के इमरजेन्सी वार्ड के पास से शोरगुल उठ रहा था । शायद आग वहीं लगी थी । भीड़ में तरह-तरह की बातें , " अरे , जहाँ आग लगी है , वहाँ काफ़ी लोग फँसे हैं...सब अशक्त हैं...। अगर आग पूर अस्पताल में फैल गई तो...? "
              काला धुआँ नीचे के बरामदे से और काला-घना होता हुआ फैलता जा रहा था...। गबरा कर भाई को फोन किया तो पता चला , वह और गुड़िया धुएँ के उस पार नीचे ही फँसे हैं...। भतीजा ऊपर ही था । स्नेह के पास मैं और वह घबराए हुए खड़े थे...। बाकी मरीज तो चल फिर रहे थे पर यह...? एकदम अशक्त...लाचार...। आग अगर भीषण रूप से फैलती हुई ऊपर आ गई तो इसे लेकर भागेंगे कैसे...? नीचे से भाई लगातार मोबाइल पर ढांढस बँधा रहा था , " घबराना नहीं , स्नेह दीदी के पास ही रहना...। " सिस्टर ने इमरजेन्सी डोर खोल दिया था , " आप लोग परेशान मत होइए...। आग पर काबू पाया जा रहा है...। फिर भी अगर कोई परेशानी होती है तो आराम से आप लोग इस रास्ते सीढ़ियों से उतर जाइएगा...। यह सीढ़ी सीधे सड़क की ओर जाती है...। "
               पेडियाट्रिक वार्ड के तीमारदारों ने अपने-अपने बच्चों को गोद में उठा लिया था और भागने की मुद्रा में इस तरह मुस्तैद खड़े थे कि जैसे हल्की सी भी चिंगारी दिखी तो वे सरपट भाग खड़े होंगे , पर इस सरपटबाजी के ख़्याल में वे यह भूल गए थे कि रास्ता एक ही था , जो ज्यादा चौड़ा भी नहीं था । ऐसे में अगर भगदड़ मची तो अपने बच्चों के साथ वे भी घायल हो सकते हैं ।
               अपनी अशक्त बहन के लिए जब मैने वहाँ की सिस्टर से अपनी चिन्ता व्यक्त की तो उस सह्रदय सिस्टर ने व्हील चेयर उसके बेड के पास लाकर कहा , " आप घबराइए मत आण्टी...वैसे तो यहाँ ऊपर कोई खतरा नहीं है , पर अगर खतरा हुआ तो आप और हम तो हैं न...। आपकी बहन को इस व्हील चेयर पर दोनो तरफ़ से उठा कर सुरक्षित बाहर ले जाएँगे...। "
               उसकी बात सुन कर थोड़ी तसल्ली जरूर हुई कि अच्छे इंसान अभी भी दुनिया में हैं , पर बावजूद इसके अब भी धुकधुकी बनी हुई थी कि भगदड़ में अगर कुर्सी न संभली तो...?
                वक़्त जैसे थम सा गया था और उसके साथ आग और धुआँ भी...पर किसी कर्मचारी के भीतर कुछ ऐसा भरा था जिसे वह धुएँ के बहाने उगल देना चाहता था , " आण्टी जी...आप नहीं जानती...हर दो-तीन महीने में यहाँ आग लगती है...। अरे नहीं , यह लगती नहीं , लगाई जाती है...। इसके बहाने करोड़ों का खेल जो होता है...। सरकार से मदद मिल जाती है...। फिर वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन भी तो है न...मदद के लिए...। आप ही बताइए , लैट्रिन में क्या टूटा था...? कुछ नहीं न...? आप ने गन्दगी साफ़ करने के लिए कम्प्लेन्ट की तो पूरा लैट्रिन ही तोड़ दिया गया...। "
              " पर इस खेल में तुम शामिल नहीं...? "
              " अरे , यह बड़ों का खेल है मेमसाहब...। आप नहीं समझेंगी इसकी गहराई को...। इतनी गहरी राजनीति है यहाँ कि बड़े से बड़ा फ़ेल हो जाए इसे समझने में...। "
              " तुम्हारा नाम क्या है...? यहाँ क्या काम करते हो...? तुम्हे यह सब कैसे पता...? क्या इसकी शिकायत कभी किसी बड़े अधिकारी से की है...? "
              " अरे बाप रे ! मरना है क्या मुझे...? " मेरे इतने सारे सवाल सुन कर वह सरपट भाग लिया...। दुःख और परेशानी के क्षणों में भी वहाँ खड़े लोगों के चेहरे पर मुस्कराहट उभर आई , " सही कह रहा है बेचारा...। छोटा आदमी है , बात खुल गई तो सच में बेमौत मारा जाएगा...। "
               " इस अस्पताल का खज़ाना भरा हुआ है पर फिर भी इन बेचारों को चुटकी भर ही दिया जाता है...। मन जला रहता है तो मुँह से ऐसी बातें निकलती ही हैं...। "
               " सच कह रहे हैं...पैसे की कमी नहीं है यहाँ...। देखिए न...चौबीसों घण्टे कहीं-न-कहीं तोड़फोड़...मरम्मत...। भीतर ऑपरेशन चलता रहता है और बाहर ठक-ठक की आवाज़...। किसी को क्या करना है इस झंझट में पड़ कर...हम अपना मरीज देखें कि यहाँ की राजनीति...। "
                 लम्बा-चौड़ा बरामदा...अल्ट्रासाउण्ड के लिए बेड पर पड़े मरीजों की लम्बी लाइन लगी है...। नम्बर आने में काफ़ी समय लगता है...। मरीज की पथराई , निराश आँखों को देख कर कब तक अपने दुःख को और गहरा करें...। इसे हल्का करने के लिए कुछ तो चाहिए , सो इसी तरह की गपशप ही सही...। सच्चाई क्या है , वही लोग जानें...हमें क्या...?
                 हाँ भैया...हमें क्या...? सच्चाई से इसी तरह लोग किनारा कर लेते हैं तभी तो भ्रष्टाचार बढ़ता जा रहा है...। बेशर्मी की हद होती जा रही है...।
                 बेशर्मी की बात पर याद आया । ऊपर के वार्ड में एक ही शौचालय था...। तीमारदार-बीमारदार सब वहीं जाएँ...। एक तरफ़ देशी व विदेशी दो लैट्रिन अगल-बगल...। उसके ठीक सामने भीतर ही पेशाब करने के प्याले...। ढेर सारे बूढ़े , अधेड़ , जवान...हर उम्र के आदमी नंगे होकर पेशाब कर रहे हैं...। मजबूर होकर औरतें , लड़कियाँ भी नज़रें नीची करके जा रही हैं...। इतना बड़ा अस्पताल है तो क्या मर्द-औरत के अलग शौचालय बनाने का ख़्याल किसी को नहीं आया...? बीमार पड़ते ही क्या इन्सान इतना बेशर्म हो जाए कि परायों के सामने ही नंगा हो जाए...? बीमारी क्या आदमी को इतना लाचार कर देती है...? और तीमारदार...उनके लिए भी बेशर्मी का रास्ता ही अख़्तियार करना मजबूरी बन गया था । 
                 इमरजेन्सी वार्ड में कुछ ऐसे भी बेशर्म ( या मानसिक विकृत...??? ) मरीज थे जो वार्ड के अन्दर भी पर्दा किए बग़ैर ही पेशाब का पॉट लेने लगते थे । वहाँ मौजूद हयादार औरतें नज़रें घुमा लेने के सिवा और क्या कर सकती थी...। इतने बड़े अस्पताल में स्त्री-पुरुष के अलग वार्ड के लिए भी जगह नहीं...?
                ये सवाल हमेशा मुझ जैसे लोगों को परेशान करते रहेंगे । यद्यपि अब ये तो तय है कि भविष्य में कभी मुझे या मेरे परिवार के किसी भी सदस्य को लौट कर , भूलवश भी ऐसे अस्पताल में नहीं जाना...। कसाइयों के हाथों अपने को सौंप देने से तो बेहतर है , अपने घर में मर जाना...। मौत से पहले इन्सान अपने घरवालों के साथ अपने दर्द को बाँट तो सकता है...। ऐसे अस्पताल में तो दर्द कम होने की बजाए और बढ़ जाता है...। हर के अन्दर इतना दर्द भरा होता है कि किसी हमदर्द को सामने पाते ही छलक जाता है...।
            
( जारी है )

Thursday, December 16, 2010

उफ़ ! भयानक अनुभव से गुजरते हुए... ( 2 )

( किस्त- इक्कीस )



इस अस्पताल के कष्टकारी अनुभवों के दौरान मैं एक अनुभव ता‍उम्र नहीं भूलूँगी...। जिस दौरान ऊपर के शौचालय में तोड़फोड़ चल रही थी , उसी दौरान समय-असमय बाहर का खाना खाने से मुझे फ़ूड-प्यॉजनिंग हो गई...। थोड़ी-थोड़ी देर में मुझे शौचालय की ओर भागना पड़ रहा था । एक घूंट पानी भी हज़म नहीं हो रहा था और न ही मेरे पास नीचे के शौचालय में पहुँच पाने का समय होता था । शौचालय और वार्ड की दूरी इतनी ज़्यादा थी कि कई बार उस ओर भागते-भागते भी कपड़ा खराब हो जाता । साथ ही मुझे उल्टियाँ भी हो रही थी...। इतनी भीषण गन्दगी और पानी की नदारती में चुल्लू भर पानी में डूब मरने की कहावत एक नए अर्थ में चरितार्थ हो रही थी । आखिर भाई से रहा नहीं गया...। पानी की ढेर सारी बोतलें खरीद लाया...किसी तरह उन्हीं से काम चला रही थी...। पर रात के यही दो-सवा दो बजे रहे होंगे...। खराब कपड़े को बाथरूम में धोकर फिर से उसी को पहना हुआ था क्योंकि ऐसी तबियत में मेरे पास कोई सूखा कपड़ा बचा ही नहीं था...। मरती क्या न करती...। गीले कपड़े पहने-पहने ही बार-बार जाकर स्नेह को भी देख रही थी...। बस्स , रात किसी तरह गुज़र जाए...।
               पर रात क्या गुज़रती है ? ऐसे कठिन समय में तो और भी लम्बी हो जाती है...। जीवन में इतनी लम्बी रात का तो मैने कभी अनुभव नहीं किया । सबसे छोटी बहन गुड़िया की हालत भी घबराहट में खराब थी...। दूसरे भाई-बहन भी जैसे खाना-पीना छोड़ बैठे थे...। उन्हीं की देखभाल के लिए गुड़िया रोज अप-डाउन कर रही थी लखनऊ और कानपुर के बीच...। मेरी बेटी की तबियत अलग खराब थी...वह गहरे डिप्रेशन में आ गई थी...। हार कर मैं और छोटा भाई सुनील ही वहाँ थे स्नेह की देखभाल के लिए...पर मेरी हालत...? क्या ईश्वर किसी अपराध का दण्ड दे रहे थे या हम सब की हिम्मत परख रहे थे ? मैं समझ नहीं पा रही थी और दिन-ब-दिन ईश्वर पर से आस्था जैसे ख़त्म सी होती जा रही थी...।
               हाँलाकि ऐसा नहीं था कि ह्मारा परिवार ही ऐसी समस्या या दुःख से गुज़र रहा था...। वहाँ तो ऐसे अनगिनत थे जिनका दुःख तो हमसे भी बड़ा था , पर सबके हाथ में कलम की वह ताकत नहीं थी जिसके माध्यम से दुनिया को यह कड़वा सच बताया जा सके...। सबके पास टकराने की हिम्मत भी नहीं थी...। भालों के पास कौन जाए...न जाने कब-कहाँ चुभ जाएँ...। इसमें भाग्य को दोष देकर ही उन्हें सन्तोष था पर मुझे नहीं...। दूसरों के बेवजह दिए दुःख को मैं आसानी से क़बूल नहीं करती । यद्यपि मेरी इस आदत के चलते स्नेह बहुत डरी-सहमी रहती और शायद उसी के कारण मैं जितने दिन भी उस नर्क में रही , चुपचाप सब सहती रही...।
               पर सहने की भी एक हद होती है...। इतना बड़ा अस्पताल और अगर किसी की हालत अचानक खराब हो जाए तो कोई डाक्टर तक उपलब्ध नहीं था...। भयानक दस्त-उल्टी से मेरी हालत बिगड़ गई थी । सुनील ने नर्स से किसी डाक्टर के बारे में पूछा तो उसने सुबह तक इन्तज़ार करने को कहा । पर फिर शायद उसे कुछ दया आ गई और उसी ने भाई को दवा का नाम लिखवा दिया । रात को तीन बजे वह बाहर जाकर दवा लेकर आया , तब कहीं सुबह तक मेरी हालत कंट्रोल में आई...। अगर समय पर दवा नहीं मिलती तो  कोई भी जानलेवा ख़तरा हो सकता था । शायद डीहाइड्रेशन के चलते मेरी किडनी फ़ेल हो सकती थी या शरीर के अन्दर कोई इन्फ़ेक्शन फैल सकता था...। यह बात उस नर्स ने ही बाद में मेरे भाई को बताई थी...। आज घर पर हूँ , पर उस क्षण को याद कर सिहर जाती हूँ...। बहन की ज़िन्दगी तो ख़ात्मे के कगार पर थी ही , पर उसके साथ अगर मैं भी...? कितना कठिन वक़्त था...। हम सब साझेदार बने उस कठिन वक़्त को निकाल रहे थे । अक्सर अच्छे इन्सानों के मुँह से यह जरूर निकलता है कि भगवान किसी दुश्मन को भी यह दिन न दिखाए...और हम कोशिश करते अच्छे इन्सानों में शुमार होने की...। काश ! हर कोई ऐसी ही कोशिश करता , पर हमारे चाहने से कुछ नहीं होता । सारी दुनिया में दो तरह के ही इन्सान हैं- अच्छे और बुरे...। अच्छे इन्सान दूसरों के दुःख में दुःखी हो जाते हैं और बुरे इन्सान दूसरों को कष्ट में देख कर खुश होते हैं...। एक दिन इस दुनिया से आगे-पीछे सभी को विदा होना है , तब इतनी ईर्ष्या , मारामारी क्यों...?  
दोनो हाथों से बटोरने के बाद भी दूसरे की सहायता करने की कामना क्यों नहीं होती ? हमारे हाथ में अगर किसी कि ज़िन्दगी बचाने का हुनर है तो हम उसे बचाते क्यों नहीं ? आज ज़िन्दगी के मायने क्या इतने बदल गए हैं कि हम उसमें और मौत में कोई फ़र्क ही नहीं कर पाते...? जायज-नाजायज़ तरीके से सुख के सारे साधन हासिल कर उसका भोग करते वक़्त हम यह क्यों भूल जाते हैं कि यह शरीर हमारे-तुम्हारे के भेद से परे होकर एक दिन उस सुख को नगण्य कर देगा...।
               भयानक अनुभवों से कभी-न-कभी हर कोई रू ब रू हुआ होगा । काश ! हम उसे ही याद करके दूसरों के दुःख में अपनी खुशी तलाशना बन्द कर दें तो यह दुनिया कितनी खुशनुमा हो जाए...।
                


( जारी है )

Wednesday, December 15, 2010

उफ़ ! भयानक अनुभव से गुजरते हुए... ( 1 )

( किस्त - बीस )



           वैसे तो ज़िन्दगी का नाम ही है , अनुभवों से गुज़रना...। आए दिन इन्सान नित नए अनुभवों से गुजरता है और उनसे बहुत कुछ सीखता भी है , पर अशक्तता के क्षणों में अगर कुछ ऐसे अनुभवों से गुजरना पड़े जिनकी आपने कल्पना भी न की हो तो क्या गुजरती है...? वह क्षण भले ही बीत जाए पर याद बार-बार कँपा देती है...। लखनऊ के पी.जी.आई के नर्क-वास के दौरान ऐसे ही कुछ अनुभव हुए जिन्हें याद करके आज भी या तो सिहर जाती हूँ या फिर वहाँ के लोगों के प्रति मन घृणा से भर जाता है...।
            लीवर ट्रान्सप्लाण्ट के वार्ड में स्नेह को भर्ती किए हुए लगभग एक सप्ताह बीत गया था । पीलिया हटने के लिए उसके पेट में स्टैंटिंग के बाद तीन थैलियाँ लगी थी और वह चलने-फिरने में पूरी तरह लाचार थी ।
            उस वार्ड में यद्यपि सभी मरीज गम्भीर थे , पर फिर भी वे थोड़ा बहुत चल-फिर सकते थे । एक मेरी बहन ही ऐसी थी जिसे पल-पल सहारे की ज़रूरत थी , पर बावजूद इसके वहाँ ज़्यादा देर ठहरना मना था । वार्ड में न कोई आया थी , न कोई वार्ड ब्यॉय...। पॉट भी देना हो तो खुद दो...बाथरूम ले जाना हो तो खुद...। चाहे जैसे करो...अलग से पैसा देने पर भी कोई करने को तैयार नहीं...। शौचालय वार्ड से काफ़ी दूर था । इतने अशक्त मरीज को किसी तरह व्हीलचेयर पर वहाँ तक ले भी जाओ तो शौचालय के भीतर भी थोड़ी दूर तक चला कर ले जाओ । हम भाई-बहन उसके साथ कभी-कभी खुद भी लड़खड़ा जाते थे...। पर मजबूरी थी...। प्रेशर आने के डर से उसने तो खाना-पीना ही छोड़ रखा था , शौचालय की उस भीषण गन्दगी से बचने के लिए हम भी जैसे उपवास ही करते थे । इससे मुझे भी कमज़ोरी सी महसूस होने लगी थी । किसी तरह अपने अशक्त हाथों से उसे संभालती , गन्दे पॉट को खुद पानी डाल कर धोती और तब जाकर उसे फ़ारिग करती...। इस दौरान भी कभी शौचालय का नल सूखा , तो कभी हाथ धोने के लिए पानी नहीं...। सो इन सब कामों के लिए भी पीने के पानी से काम चला कर सन्तोष कर लेते । जब नर्क में हैं ही तो गन्दगी से क्या घिनाना...किसी तरह स्नेह ठीक होकर वापस घर चले तो फिर कभी बिना परखे किसी अस्पताल का रुख़ नहीं करेंगे...।
            इतने कष्ट में हफ़्ता भर किसी तरह शौच का मामला निपट रहा था कि एक सुबह प्रेशर महसूस होने पर हक्का-बक्का ही रह गई...। उस मंजिल के एकमात्र शौचालय को बड़े विध्वसंक तरीके से तोड़-फोड़ डाला गया था । भीतर चार-पाँच मजदूर पूरे फ़र्श को तोड़ रहे थे...। वॉश बेसिन का नल बन्द कर दिया गया था और जगह-जगह बड़ी-बड़ी गिट्टियाँ पड़ी हुई थी । भीतर कमोड में मरीजों द्वारा या मजदूरों द्वारा इतनी गन्दगी कर दी गई थी कि उधर नज़र पड़ते ही आँखें जैसे पथरा गई...। बगल में एक छोटा , गन्दा सा गुसलखाना था जिसमें पीडियाट्रिक वार्ड के नन्हें बच्चों को उनकी माएँ मजबूरी में शौच करा रही थी...। बच्चे तो फ़ारिग हो रहे थे पर बड़े कहाँ जाएँ...?
             परेशान होकर तोड़फोड़ का कारण पूछा तो पास खड़े एक रोबदार आदमी ने  गुर्रा कर कहा , " ज़मीन दरक गई थी , ठीक की जा रही है...। "
            " भैयाऽऽऽ , कब तक ठीक होगा ? "
            " पता नहीं...। " काम बन्द करके उसका दरवाज़ा भी मुँह पर बन्द कर दिया गया , " आप लोग वेटिंग रूम की लैट्रिन में जाइए...नीचे हॉल में है...। "
              सुबह का वक़्त था...सभी का प्रेशर  तेज़ था...। कुछ को बर्दाश्त था तो कुछ को नहीं...। जो लोग बर्दाश्त कर सकते थे , वे दूसरे शौचालय की ओर दौड़ पड़े , पर जिन्हें नहीं था , वे...?
              मैं प्रेशर में तो थी ही , उधर बहन को भी महसूस हो रहा था...। पहली बार इस ज़रूरत के वक़्त आँखों में आँसू आ गए...। घर में तो देशी और विदेशी , दोनो तरह के साफ़-सुथरे शौचालय बने हैं और वो भी कमरे से अटैच...। मन में कोई भय नहीं कि आवश्यकता के वक़्त इन्तज़ार करना पड़ेगा , पर यहाँ...? काश ! कोई प्राइवेट कमरा मिल जाता तो शायद इतनी परेशानी न झेलनी पड़ती...। पर - " कमरे की कौन कहे , आप को बेड मिल गया , यही काफ़ी है मैडमऽऽऽ...वरना मैने तो सुना है कि ऊपर से कुछ दीजिए तो फटाक से कमरा क्या , पूरा सुइट बुक करा लीजिए...। "
              एक लड़का जो मेरा बड़बड़ाना सुन रहा था , मेरी बगल से यह कहता निकल गया...।
              परेशान होकर भाई भी इतने लम्बे-चौड़े बरामदे में इधर से उधर भटकता शौचालय की तलाश कर रहा था । आखिर थोड़ी देर बाद परेशानी दूर हुई...। लिफ़्ट से नीचे जाकर बच्चों के इमरजेन्सी वार्ड के पास एक साफ़-सुथरा शौचालय मिला । यद्यपि लाइन वहाँ भी थी पर ऊपर के वार्ड की तरह बद‍इन्तज़ामी नहीं थी और इसी के चलते राहत थी...।

( जारी है )
            

Sunday, December 12, 2010

दर्द की यह कौन सी ‘ मंडी ’ है ? - ( 7 )

( किस्त - उन्नीस )


डाक्टर शिवकुमार...मृत्यु के देवता ‘ शिव ’...पर शिव क्या सिर्फ़ मृत्यु ही देते हैं ? भगवान शिव के नाम को याद कर जब इनका नामकरण किया गया होगा , तब क्या इनकी आत्मा में ईश्वर का एक नन्हा-सा अंश भी समाया होगा ? शायद अगर वह नन्हा सा अंश इनमें होता तो यह अपने मरीजों की देखभाल में कोई कोर-कसर न छोड़ते...। पर उन्होंने तो स्नेह को पलट कर देखा भी नहीं , उसका हाल भी जानने की कोशिश नहीं की...सिर्फ़ अपना एक रुटीनी खेल खेलते रहे...। लॉबी में घण्टों इन्तज़ार के बाद अल्ट्रासाउण्ड के माध्यम से पेट के घाव को दबा-दबा कर यह जानने की कोशिश करते रहे कि रोग के जीवाणु किस गति से बढ़ रहे हैं , मौत का ग्रास बनने में मरीज को अभी कितना वक़्त और लग सकता है...और जब यह सब निश्चित हो गया , तो उन्होंने अपना हाथ इस तरह खींच लिया , जैसे वे कभी वहाँ थे ही नहीं...। भगवान अपने भक्तों को कभी बेसहारा नहीं छोड़ते...मरीज भी अपने डाक्टर को भगवान का ही दर्जा देते हैं , तब क्यों डाक्टर शिवकुमार ने भगवान के नाम को लजाया...?
                  लीवर ट्रान्सप्लाण्ट वार्ड की वह पतली-दुबली , अशक्त , पर बेहद फ़ुर्तीली सी उस माँ ने , जो लखीमपुर से आई थी , एक दिन आँखों में आँसू भर कर कहा था , " मेरे बच्चे यहाँ मेरा इलाज कराने लाए हैं या मुझे बेमौत मारने...? "
                  वहाँ के इन्तज़ाम से दुःखी होकर ही उन्होंने अपने बच्चों पर यह इल्ज़ाम मढ़ा था , पर इतना तो वे भी जानती थी कि चारो तरफ़ से हार कर ही वे एक आशा से वहाँ आए हैं...। अब यह बात दूसरी है कि दिन-पर-दिन उनकी आशा भी औरों की तरह निराशा में बदल रही थी और वह फ़ुर्तीली सी ममतामयी माँ , जो अपने बच्चों के लिए अभी और जीना चाहती थी , उसे देखने आने वालों की वहाँ तो आवभगत करती ही थी , पर घर लौट कर और भी ज्यादा आवभगत करना चाहती थी...। वह अपने पति को उस उम्र में नहीं छोड़ना चाहती थी और अपनी इसी जिजीविषा के चलते वह सुबह होते ही एक्सरसाइज़ व नाश्ता करने में जुट जाती...। अस्पताल का बेस्वाद खाना गले से नहीं उतरता तो अपनी बड़ी बेटी के हाथ का बना खाना ( बिना भूख के ही ) खाने की कोशिश करती , सिर्फ़ इस लिए कि अपने घर लौट सके...। सिर्फ़ एक बार और...थोड़ा-सा और सहेज दे घर को...। उन्होंने घर के मोह को नहीं छोड़ा , पर ज़िन्दगी ने उनके मोह को छोड़ दिया और एक दिन भरे मन से वह भी विदा हो गई...।
                 " विदा "...यह शब्द मन को कितना भारी कर देता है...। अपनी उम्र पूरी कर , दुनिया के तमाम तामझाम को समेट कर जब कोई दूसरी दुनिया में जाने के लिए अपने परिवार से विदा लेता है तो दुःखी होने के बावजूद मन के किसी कोने में यह सन्तोष भी रहता है , पर इसके उलट समाज में फैले भ्रष्टाचार के चलते जब कोई असमय ही विदा हो जाता है तो दुःख भीतर जड़ जमा लेता है...। काश ! लापरवाही बरतने वाले डाक्टर , क्रूरता से पेश आने वाली नर्सें , खाने के सामान को ज़हरीला बना देने वाले हैवान और हर वक़्त जैसे सोए हुए से रह कर बड़ी-बड़ी बातें करने वाले देश के तथाकथित नेता किसी के दुःख को महसूस कर पाते तो कितना अच्छा होता...।

                  
 ( जारी है )