Thursday, November 18, 2010

दर्द की यह कौन सी ‘ मंडी ’ है ? -( 6 )

( किस्त- अठ्ठारह )



एक बात गौर करने की है कि जहाँ जागरुकता है , धन है , नाम है और है दमदार शख़्सियत , वहाँ देखिए...अधिकतर यही होता है कि बड़ी-से-बड़ी बीमारी से भी आदमी स्वस्थ होकर बाहर आ जाता है ।
                   मेरी नज़रों के सामने ही एक नेतानुमा आदमी इमरजेन्सी वार्ड में भर्ती हुआ । साथ में तीन-चार बन्दूकधारी...। पता नहीं किस पार्टी से था , पर उसकी आवभगत में कोई कमी नहीं की गई । उन महाशय से कोई परिचय नहीं हुआ , पर न केवल रोबदाब से , बल्कि डील-डौल से भी वे नेता सरीखे ही लगे...। गैस की मामूली सी समस्या में भी उन्हें न केवल इमरजेन्सी में भर्ती किया गया बल्कि दूसरे दिन उन्हें कमरा भी मिल गया , जबकि हम सब के लाख अनुरोध के बावजूद हर बार यही कहा गया कि कोई भी कमरा खाली नहीं है । गनीमत है आपको यहाँ एक बेड तो मिल गया , पर इसे भी दो दिन के अन्दर खाली करना पड़ेगा...।
                   हर कोई अपनी भावनाओं को कागज पर उकेर नहीं पाता । जिस दिन यह सम्भव हो गया , उस दिन यह धरती छोटी पड़ जाएगी और दुःख का एक ऐसा महाग्रन्थ तैयार होगा जिसके लिए धरती रूपी लायब्रेरी में जगह ही नहीं बचेगी...। वहाँ की अलमारियों में अनगिनत किताबें पहले से जो अटी पड़ी है...।
                   दुःख का सन्दर्भ आते ही मेरी आँखों के आगे उस साँवली सी , कम उम्र महिला का चेहरा घूम जाता है , जो भीषण शोर से भरे उस बरामदे में भी एक सन्नाटे सी पसरी थी । बनारस ( वाराणसी ) से आई उस महिला के साथ उसका पति , देवर , देवरानी , जेठानी और यहाँ तक कि दो-चार पड़ोसियों का परिवार भी था , पर इतने लोगों से घिरे होने के बावजूद वह एकदम निःसहाय और अकेली थी...। घर पर एक विवाहिता बेटी और दस साल का बेटा उसके इन्तज़ार में थे , पर उन्हें नहीं पता था कि माँ अब कभी लौट कर घर नहीं आएगी...। पीलिया और लीवर सोरायसिस से ग्रसित माँ को चमत्कार भी नहीं बचा सकता...। आखिर क्यों...?
                   जब डाक्टरों ने मेरी बहन के साथ उस महिला के भी न बचने की बात कही थी , तब मेरे दिमाग़ में यह बात आई कि आज के युग में जब वैज्ञानिक बड़ी-बड़ी बातें ही नहीं करते बल्कि उसे कर भी गुज़रते हैं तो उसे चमत्कार का नाम दिया जाता है । आज जब कई होनहार डाक्टर अपने पेशे को गर्वित करते हुए मौत के मुँह में पहुँचे हुए इन्सान को भी जीवनदान देते हैं , तब उसे काबिलियत , हिम्मत , बुद्धिमत्ता और पेशे के प्रति ईमानदारी का दर्ज़ा दिया जाता है...। इसी युग में बिना बेहोश किए मरीज से बात करते हुए ओपन हार्ट सर्जरी की जाती है...सड़े-गले लीवर को हटा कर नया लीवर ट्रान्सप्लान्ट किया जाता है...कैन्सर जैसी भयानक बीमारी तक से निज़ात दिलाया जाता है , तब कुछ जगह , कुछ इन्सानों के साथ भेदभाव क्यों...?  
                   ऐसे में उन ‘कुछ’ डाक्टरों की काबिलियत और ईमानदारी पर अविश्वास किया जाए...? या फिर मान लिया जाए कि उन्हें सिर्फ़ सरकार से मिलने वाली अपनी मोटी तनख़्वाह और सहूलियतों से मतलब है...। ऐसे लापरवाह डाक्टरों को अस्पताल में रख कर मरीजों के साथ खिलवाड़ करने का हक़ किसने दिया है...? किसने उन्हें ज़िन्दगी की आखिरी घड़ियाँ गिनते हुए मरीजों के सामने ही उनकी मौत का ऐलान करने का हक़ दिया है...? क्या उन्हें इतनी भी तमीज़ और अक़्ल नहीं है कि परिजनों को अलग बुला कर ढाँढस बँधाते हुए एक शालीन तरीके से उनके प्रिय के विदा होने का संकेत दिया जाए...।
                   एक गम्भीर मरीज के सामने दूसरे मरीज की मौत की बात मज़ाक के तौर पर करते हुए क्या शर्म नहीं आती ऐसे डाक्टरों को...? अल्ट्रासाउण्ड कक्ष में मेरी बहन का अल्ट्रासाउण्ड करते दो डाक्टरों का मज़ाक मुझे भीतर तक साल गया था और साथ ही मेरी बहन को इतना कँपा गया था कि उसने घबरा कर डाक्टर की बाँहें हिला दी थी , " डाक्टर साहबऽऽऽ , क्या मैं...? "
                  घबरा कर मैने उसे चुमकारा , " नहीं...तुम नहीं , घबराओ नहीं...ये दूसरे के लिए बात कर रहे हैं...। "
                  उसने आँखें तो बन्द कर ली थी लेकिन एक अनजाना सा जो भय उसके चेहरे पर चिपक गया था , वह मेरे बार-बार चुमकारने और सान्त्वना देने के बावजूद नहीं हटा था...।
                  यह कैसा क्रूर मज़ाक था...? बाहर , वाराणसी से आई वह महिला आँखों में सन्नाटा भरे टुकुर-टुकुर इधर-उधर देख रही थी । उसके मायूस परिजन उदास थे और भीतर यह मज़ाक , " अरे यार...कल उसकी स्टैन्टिंग करनी है...। पीलिया चरम पर है...लीवर लगभग फ़ेल है...।"
                  " तो ? "
                  " अरे तो क्या...? अगर कल सुबह तक ज़िन्दा रहा तो उसका ऑपरेशन करूँगा भाई...। "
                  " आप अपने को क्यों कहते हैं सर , यह कहिए कि अगर वह कल सुबह तक ज़िन्दा रही तो ऑपरेशन करूँगा..." और फिर एक जोरदार ठहाका...।
                   सच कहूँ...मन-ही-मन मैने कहा था कि उस औरत की मौत की कामना करने वाले क्रूर , बेदिल इन्सान , काश ! तुम सुबह का सूरज सच में न देख पाओ...। मेरी बहन को कँपा देने वाले , एक दिन कोई तुम्हें भी ऐसे ही कँपा दे...।
                   आज मैं इन पन्नों पर अपना दर्द अंकित करते हुए यही कामना करती हूँ कि ऐसे लोगों के लिए मेरी बद्दुआ फलीभूत हो जाए...। पर ईश्वर क्या सबकी सुनते हैं...? शायद नहीं...। तभी तो बाद में फोन पर ही पता चला कि दस साल के उस बेटे की माँ लौट कर अपने घर नहीं गई , अपने बच्चे को दुलारने के लिए... गया तो उसका निर्जीव शरीर...।


( जारी है )
              

Tuesday, November 16, 2010

दर्द की यह कौन सी ‘ मंडी ’ है ? -( 5 )

( किस्त- सत्रह )



संकट की घड़ी में हर किसी को एक विश्वास की सख़्त ज़रूरत होती है । हर कोई ऐसे क्षण में चाहता है कि अस्पताल पहुँचते ही इलाज शुरू हो जाए । मरीज अगर ज्यादा ख़तरे में है तो प्रावेट डाक्टर अपनी साख बचाने के चक्कर में उसे हाथ नहीं लगाना चाहते । ऐसे में आदमी कहाँ जाए...? एक इमरजेन्सी वार्ड , आई.सी.यू या वेन्टीलेटर का ही सहारा बचता है पर वहाँ भी भ्रष्टाचार ने इस कदर पाँव पसार रखे हैं कि देख कर मन मायूस हो जाता है...। एक भुक्तभोगी सज्जन ने एक माने हुए अस्पताल का नाम न लेकर सिर्फ़ इशारा करते हुए बताया कि वहाँ आई.सी.यू में मरीज को वेन्टीलेटर पर रख कर कई दिनों तक उसके ज़िन्दा रहने का नाटक किया जाता है और उसके परिजनों को बार-बार विश्वास दिला कर कि उनका मरीज अभी ज़िन्दा है और बच जाएगा , उनसे मोटी फ़ीस वसूली जाती है जबकि सच्चाई यह होती है कि मरीज कब का मर चुका होता है...। मानवता को कलंकित करने की यह कैसी इंतहा है...? 
                 इस सन्दर्भ में जब मैने उनसे उस अस्पताल की पोल-पट्टी खोलने की बात की तो एक अनजाना भय उनके चेहरे पर उभर आया और वे दस मिनट में मुझे समझा कर इस तरह खिसके जैसे कभी वहाँ थे ही नहीं...।
                उनके जाने के बाद भी उनकी बातें मुझे बहुत कुछ सोचने और कहने को मजबूर करती रही । उन्होंने एक तरह से ग़लत नहीं कहा , " यह किसे सुधारने की बात कह रही हैं ? जानती हैं यह कौन सा डिपार्टमेन्ट है...ज़िन्दगी बचाने वाला...। आप इससे टक्कर लेंगी तो चुटकियों में मसल कर रख देगा ज़िन्दगी...। "
               " अरे , ये पाँव में चुभे मामूली काँटे नहीं हैं कि खुरचा और काँटा बाहर...। ये भाले हैं...भाले...सीधे छाती में उतर जाएँगे और आप कुछ नहीं कर पाएँगी...। आपका तो जो नुकसान होना था , वो हो गया न...आप क्या कर पाई...? आपके सामने इलाज की लापरवाही के चलते आपकी बहन सैप्टीसीमिया ( सैप्टिक ) की गिरफ़्त में आ गई और उसकी ज़िन्दगी ख़ात्मे की कग़ार पर है...उसकी ज़िन्दगी आप बचा पा रही हैं...? आपको और आपके भाई-बहनों को पागलों की तरह डाक्टर के पास भागते हुए मैने देखा है...। अभी तक तो आपने उनसे कोई बदसलूकी भी नहीं की...कोई नुकसान नहीं किया , फिर भी ये भाले चुभे न...? अब आगे की सोचिए...। जो नुकसान होना था , हो गया , उसकी भरपाई नहीं हो सकती । आप लेखिका हैं , इतना तो समझती ही हैं न कि आज के ज़माने में ज्यादातर लोगों के सीने में दिल नाम की चीज ही नहीं है...। ये पत्थर हो चुके हैं...। इस पर सिर पटकने से कुछ नहीं होगा...बल्कि अपना सिर ही फूटेगा...। दूसरों की भलाई के चक्कर में खुद क्यों घायल होना चाहती हैं...? हर आदमी इस संकट से जूझ रहा है , मर रहा है , पर कर कुछ नहीं पा रहा है...। जो पुरजोर कोशिश करते भी हैं , अन्त में वे भी हार कर बैठ जाते हैं...जैसे मैं...। "
                 " जैसे मैं..." ये शब्द जैसे मेरे भीतर जाकर सन्नाटे की तरह पसर गया था । मेरे परिवार की तरह शायद उन्होंने भी कोई बड़ा हादसा झेला था , तभी मन में इतनी कड़ुवाहट...इतनी आग...और भी बहुत कुछ उन्होंने अपशब्दों के माध्यम से कहा था , जिन्हें यहाँ दोहराना मैं उचित नहीं समझती , पर इतना जरूर समझ गई हूँ कि अगर सारे भुक्तभोगी एकजुट हो गए तो ज़िन्दगी बचाने का नाटक करते हुए चुपके से उसे ख़त्म करने वाले मुर्दादिल भ्रष्टाचारियों के जीवन में आग ही लग जाएगी...। अगर सरकार ही जागरुक हो जाए तो न जाने कितनी ज़िन्दगियाँ नर्क की ज़िन्दगी जीने से बच जाएँ...।


( जारी है )
                  


Saturday, November 13, 2010

दर्द की यह कौन सी ‘ मंडी ’ है ? - ( 4 )

( किस्त - सोलह )





एम्बुलेन्स आ गई थी । स्नेह को लेकर हम लोग कानपुर की ओर रवाना हो गए । ज़िन्दगी की एक आस थी जो डाक्टर अनूप अग्रवाल ने दी थी । कानपुर का कुलवन्ती अस्पताल...बहुत बड़ा तो नहीं , पर वहाँ के डाक्टर और नर्स बहुत बड़े हैं...कर्तव्य से...भावना से...। उन्होंने अन्तिम दम तक मौत से लड़ने का वायदा किया...दिलासा दिया और सब कुछ ऊपर वाले पर छोड़ देने का भरोसा...। संसार में चमत्कार भी होते हैं शायद...।
              स्नेह के मुँह में आक्सीजन लगी थी और ए.सी एम्बुलेन्स लगातार हॉर्न बजाती , भीड़ को परे करती , पूरी रफ़्तार से कानपुर की ओर भाग रही थी...। जीवन में पहली बार एम्बुलेन्स से वास्ता पड़ा था और उस वास्ते का अनुभव भी कैसा...?
              अर्धबेहोशी में स्नेह बार-बार ऑक्सीजन की नली हटा देती...। एक हाथ से ऑक्सीजन पकड़े , दूसरे हाथ से स्नेह को संभाले तेज़ रफ़्तार गाड़ी में खुद को संभालना मुश्किल हो रहा था...। छोटा भाई राजू भी दोनो तरफ़ से उसे पकड़े बैठा था...। बाकी भाई-बहन पहले ही तेज़ रफ़्तार से अपनी गाड़ी से कानपुर रवाना हो चुके थे , हम लोगों के पहुँचने से पहले ही अस्पताल में सारी व्यवस्था करने...।
              एम्बुलेन्स जैसे चल नहीं , उड़ रही थी...। पहले मैं इसका तेज़ , कानफाड़ू हॉर्न सुनकर अपनी गाड़ी किनारे तो कर लेती थी और मन में हल्का दुःख का अहसास भी होता था कि उस गाड़ी में पता नहीं कितना गम्भीर मरीज होगा . पर आज...आत्मा की पूरी गहराई तक इस दुःखभरे क्षण में अहसास हो रहा था कि बाहर कितना भी शोर हो , पर भीतर ज़िन्दगी और मौत की जंग लड़ती अपनी बहन के कारण जो सन्नाटा पसरा था , वह बहुतों ने अपने लिए महसूस किया होगा...।
                एक तरफ़ बहन का दुःख था तो दूसरी तरफ़ एक अजीब सा सन्तोष भी था...उस भीषण नर्क से छूट जाने का...। नर्क काफ़ी पीछे छूट गया था , पर उसके प्रति मेरी घृणा , मेरा आक्रोश ज्यों-का-त्यों था...।
                बहुत दिनों पहले मैने श्री हरिवंशराय बच्चन जी की आत्मकथा " क्या भूलूँ , क्या याद करूँ " पढ़ी थी । वे एक महान हस्ती थे । उन्होंने अपनी आत्मकथा में जो कहा , वह बेमिसाल और अमर हो गया । पर मैं अपने स्तर पर यह नहीं समझ पा रही हूँ कि अपने उस पन्द्रह दिनों के नरकवास का मैं क्या याद रखूँ और क्या भूल जाऊँ...?
                क्या उस पच्चीस-छब्बीस साल के नौजवान को भूल जाऊँ , जो आँत के ऑपरेशन के बाद कंकाल-सरीखा लग रहा था...। जो कुछ उसके पिता से सुना , उससे यही पता चला कि कुछ महीने पहले पी.जी.आई में ही उसकी आँत का ऑपरेशन हुआ था , पर कुछ दिनों बाद एक अजीब सी गिल्टी फूल आई थी उसके पेट के निचले हिस्से में...मजबूरन वह दोबारा वहाँ आ गया...। पिता की आँखों में इस क़दर बेचारगी भरी हुई थी कि पास खड़े एक बुजुर्ग को बर्दाश्त नहीं हुआ । उसने कहा , " यहाँ दोबारा नहीं आना चाहिए था...। "
              " क्या करूँ भैया...दूसरा डाक्टर इसे हाथ नहीं लगा रहा था...। कह रहा था , जहाँ इसका ऑपरेशन हुआ है , वहीं ले जाओ...। " कहते-कहते उसकी आवाज़ रुँध गई । आगे वह कुछ नहीं बोल पाया ।
               जिस डाक्टर ने ऑपरेशन किया था , वह तरह-तरह के फलसफ़े झाड़ कर बाप को समझाने की कोशिश कर रहा था और बाप के पास सिर हिलाने के सिवा कोई और चारा नहीं था...। उस वक़्त वह डाक्टर ही उसका भगवान था । चाहे तो बचा ले , चाहे तो...। उसी समय मैं वापस चल दी थी । पता नहीं हाड़-माँस के उस अकेले या उस जैसे सैकड़ों का क्या होता होगा...? अब इस युग में ‘ राम जाने ’ भी नहीं कह सकती...कोई मायने भी तो नहीं है...।
               प्राइवेट अस्पतालों के इमर्जेन्सी वार्ड की हालत तब भी बेहतर है...आखिर उन्हें अपना नाम जो कायम रखना है , पर सरकारी अस्पतालों की हालत अन्य सरकारी विभागों की तरह ही है । कोई सुनवाई नहीं वहाँ...सब बहरे हैं जैसे...।
               दर्द की उस मंडी की उस करुण चीख को भी नहीं भूल सकती जो एक युवा सरदार के मुँह से चीत्कार बन कर निकली थी और पूरे इमरजेन्सी वार्ड को कँपा गई थी...।
                उस नौजवान सरदार का पूरा शरीर ल्यूकोडर्मा की गिरफ़्त में था । दुबला-पतला , बेहद अशक्त सा वह युवक बहुत बेचैन था । उस वार्ड में हर कोई अपने-अपने प्रिय की देखभाल में व्यस्त था । किसी के पास भी इतनी फ़ुर्सत नहीं थी कि वह जाने कि आखिर उसे हुआ क्या है और वह इतना अधिक बेचैन क्यों है...?
                बला की गर्मी थी इमरजेन्सी वार्ड में...। सिरहाने चलता पंखा हर कोई अपने ऊपर करने की होड़ में था । मरीज...तीमारदार...सब पसीने से तर-ब-तर...। बार-बार पानी पीने के बाद भी गले की चटकन कम नहीं हो रही थी । लगता था जैसे प्यास हलक में कहीं अटक गई हो...। ऐसी जानलेवा गर्मी में आदमी बीमार पड़ता है और फिर घर-बार छोड़ कर उसे नर्क में आना ही पड़ता है...।
                 इस नर्क में कौन उस युवक को यातना दे रहा था ? एक अधेड़ सी महिला और दूसरी कुछ युवा सी , उसे पैरों और कन्धे की ओर से कस कर पकड़े हुई थी...कुछ इस तरह कि बस उसे जिबह किया जाना है...। एक नर्स जबरिया उसकी नाक में नली ठूँसते हुए गुर्रा रही थी , " पियोऽऽऽ , चलोऽऽऽ , पानी पियो..." और वह महिलाओं की पकड़ से छूटने का प्रयास करता हुआ इतनी बुरी तरह डकरा रहा था कि हमारी तो रुह ही काँप गई । यातना की यह कौन सी अंधी सुरंग थी जहाँ बदनसीबी से हम सब आकर फँस गए थे...। एक तरफ़ खाई थी और दूसरी तरफ़ फिसलन भरी सपाट चट्टान...। रास्ता इतना संकरा और चिपचिपा था कि चलना मुश्किल...। अनचाहे ही सही , ठहरना जरूरी था...।
                ठीक है कि वह युवक मुँह से पानी भी नहीं ले पा रहा था और नली डाल कर खाना-पानी देना ज़रूरी था , पर क्या यह भी ज़रूरी था कि उस प्रक्रिया को इतनी बेदर्दी से अंजाम दिया जाए...?
                यहाँ कानपुर के कुलवन्ती अस्पताल मे स्नेह के आखिरी समय में जब उसने खाना-पीना त्याग दिया था और डाक्टर ने नली लगाने की बात कही , तो मैं भय से चीख पड़ी थी और इसका पुरजोर विरोध किया था । मेरे इस विरोध पर डाक्टर ने बड़ी नर्मी से समझाया था कि देखिए , ज़िन्दगी को समय देने के लिए यह ज़रूरी है...। हम इसके माध्यम से जूस , पानी तो देंगे ही , साथ ही दवा भी आसानी से दे सकेंगे...। मैं मजबूर थी हामी भरने के लिए , पर उस समय दंग रह गई , जब डाक्टर ने बेहद कोमलता से , बहन को दर्द का ज़रा भी अहसास कराए बग़ैर उसकी नाक में नली डाल दी और फिर उतनी ही आसानी से उसे दवा-पानी देने लगे...।
                मैं सोचने पर मजबूर थी...। अस्पताल दोनो ही हैं , पर दोनो में इतना फ़र्क क्यों...? डाक्टर व नर्स यहाँ भी हैं , पर वहाँ मानवता-प्यार कम क्यों...? जहाँ प्राइवेट अस्पताल को अच्छा-से-अच्छा इलाज करके अपनी साख़ बचानी होती है , वहीं सरकारी अस्पताल लापरवाही बरत कर सरकार के मत्थे सारा दोष क्यों मढ़ देते हैं...? सरकार उन्हें मोटी तन्ख़्वाह देती है तो क्या सिर्फ़ इसलिए कि  वे सरकार पर सारी ज़िम्मेदारी डाल कर खुद मस्त हो जाएँ...? उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि वक़्त किसी का नहीं होता...। एक दिन उन्हें भी उस प्यार की झप्पी की सख़्त जरूरत पड़ सकती है , जिसे वे अपने मरीजों को देने में अपनी हेठी समझते हैं...।
                 


( जारी है )

Thursday, November 11, 2010

दर्द की यह कौन सी ‘ मंडी ’ है ? - ( 3 )

( किस्त - पंद्रह )



 बहन की ज़िन्दगी का सफ़र ख़त्म होने की कगार पर था...यह मुझे नहीं , वहाँ के वार्ड इन्चार्ज को लगा होगा , तभी वह बड़े सधे कदमों से मेरे पास आया और रूखे शब्दों में बोला , " पन्द्रह मिनट में यह बेड खाली कर दीजिए...हमें दूसरा मरीज भी भर्ती करना है...। "
             " मैं कुछ नहीं जानती...। जब तक मेरे भाई-बहन नहीं आ जाएँगे , तब तक मैं यहाँ से हिलूँगी भी नहीं...। "
             मेरे स्वर की दॄढ़ता भाँप कर वह नर्स से गुर्राया , " सिस्टरऽऽऽ , इनकी क्या प्रॉब्लम है , मुझसे मतलब नहीं...। आफ पन्द्रह मिनट के अन्दर इस पलंग को बाहर कर दीजिए...। "
             अब गुर्राने की बारी मेरी थी । अगर मैं ऐसा न करती तो उस भीषण गर्मी में वह बेदर्दी से पलंग को बाहर कर देती...।
             बहन पूरी तरह बेहोश थी । नर्स ने मेरे मना करने के बावजूद उसका वीगो निकाल दिया , सारे इंजेक्शन हटा दिए और फिर आगे बढ़ी , पलंग घसीटने के लिए , " ये तो एक तरह से ख़त्म हैं...इन्हें यहाँ रखने से कोई फ़ायदा नहीं...आप हटिए आगे से...। "
            " नहींऽऽऽ , मैं नहीं हटूँगी...। ये ख़त्म नहीं है...इसकी साँस चल रही है...। जब तक मेरे भाई-बहन नहीं आ जाते , मैं इसे छूने भी नहीं दूँगी...। अच्छा यही होगा कि इसके साथ कोई जोर-जबर्दस्ती न करो...। " नर्स ने आग उगलती आँखों से मेरी ओर देखा और जाकर उस ठिगने इन्चार्ज से कुछ कहने लगी । इन्चार्ज ने मुड़ कर मेरी ओर देखा , फिर उसकी उँगलियाँ बड़ी तेज़ी से कम्प्यूटर के की-बोर्ड पर चलने लगी । जितनी तेज़ उसकी टाइपिंग की खटपट थी , उतनी ही तेज़ मेरी सिसकियों की आवाज़...। बहन के ख़त्म ( ? ) हो जाने की बात कह कर उसने मेरे भीतर बँधे बाँध को तोड़ दिया था ।
              बाहर भाई-बहन मानो मीलों लम्बा सफ़र तय करके उस डाक्टर को ढूँढ रहे थे , जिसकी लापरवाही के चलते मेरी बहन की दुर्दशा हुई थी और वह उसे बीच अधर में अटका कर कहीं गुम हो गया था ।
              किसी ने कहा कि डाक्टर ने वहाँ की नौकरी छोड़ दी है , कोई कहता कि नहीं , वे ऑपरेशन में व्यस्त हैं...। बार-बार मिलाने पर भी उनका फोन नहीं उठ रहा था । भूखे-प्यासे भाई-बहन थक कर कभी बाहर बैठ जाते तो कभी वार्ड में आकर मुझे धीरज बँधाते , " परेशान मत हो...कुछ नहीं होगा...। एक बार किसी तरह डाक्टर साहब से बात हो जाए तो फिर सोचते हैं कि क्या करना है...। "
              आखिर डाक्टर गए तो गए कहाँ...? जूनियर डाक्टर हाथ नहीं लगा रहे थे । यह किसके कहने पर इलाज बन्द कर दिया गया ? बार-बार कहने पर भी स्टैन्टिंग के घाव पर ड्रेसिंग क्यों नहीं की जा रही ? स्नेह अभी ज़िन्दा थी , पर फिर भी उन लोगों ने उसे मृत समझ लिया था । हम लोगों ने धीरज नहीं खोया , पर इतनी बात समझ में आ गई कि ऐसे निर्दयी डाक्टरों के चलते ही अस्पतालों में आए दिन बवाल होता है , पर फिर भी हारता तीमारदार ही है । रसूख़दार और ज़िम्मेदार पेशे में होने के कारण ये डाक्टर हमेशा जीत जाते हैं...। न कानून इन पर कोई ठोस कार्यवाही कर पाता है और न तीमारदार ही...।
               हम सब भी इसी मजबूरी के चंगुल में थे । स्नेह अब भी बेहोश थी । उसकी साँस चल रही थी और उसके साथ हमारी आशा भी...। काफ़ी समय बीत जाने के बाद एक जूनियर डाक्टर आया और समझाने की मुद्रा में बोला , " देखिएऽऽऽ , आप लोग सब कुछ ख़त्म हुआ ही समझिए...। ये दो-चार दिन भी ज़िन्दा रह सकती हैं और दो-चार घण्टे में भी कुछ हो सकता है...। आप लोगों को अगर विस्वास न हो तो गैस्ट्रो विभाग के वार्ड में मैं दो-चार दिनों के लिए इन्हें जगह दे सकता हूँ...। "
              डाक्टर बोले जा रहा था पर हम सब को जैसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था । मौत की एक अजीब सी आहट थी जो करीब आ रही थी और हमें भरसक उससे दूर भागना था ।
              बहन-भाई बाहर की ओर भागे , एम्बुलेन्स की व्यवस्था करने...। इस नर्क में अब एक क्षण भी नहीं रुकना...। वह सब बातें कोरी बकवास हैं जिनमें कहा जाता है कि ईश्वर के बाद जीवन रक्षा में डाक्टर का दर्जा है और वह अपने मरीज को अन्तिम दम तक बचाने की कोशिश करता है । छिः , ऐसी बकवास करके लोग भ्रम क्यों फैलाते हैं...? यहाँ तो सब कुछ आँखों देखा हो रहा था...। इलाज शुरू करके ख़त्म करने वाला डाक्टर मुँह छिपा कर इस तरह बैठ गया कि एक बार उसने मुड़ कर देखा भी नहीं कि उसका मरीज , जिसने उस पर विश्वास किया , कैसा है...?


( जारी है )
                      


Sunday, November 7, 2010

दर्द की यह कौन सी ‘ मंडी ’ है ? - ( 2 )

( किस्त - चौदह )



 रात के सन्नाटे का कलेजा भी जैसे चाक-चाक हो गया था । कोई किसी से कुछ बोल नहीं रहा था । एक नन्हीं सी मौत ने उन्हें और भी डरा दिया था । मुझे और मेरी बहन को भी...। अर्धबेहोशी की हालत में भी शायद उसने माँ की चीख और दर्द को महसूस कर लिया था और अब भय के मारे काँपने लगी थी ।
                 इतनी देर से अवाक खड़ी मैं घबरा कर उसके पास दौड़ी और उसे एक मासूम बच्चे की तरह ही पुचकारने लगी , " घबराओ मत...कुछ नहीं हुआ है...। देखो , तुम ठीक हो न...। बस दो-चार दिन की बात और है , फिर हम घर चलेंगे...।"
                मैं ज्यादा देर तक अपने को सँभाल नहीं पाई । काफ़ी देर से आँखों के भीतर जो ढेर सारा पानी जमा हो गया था , वह सहसा ही बाँध तोड़ कर बह निकला । सुनील और इंदर भैया अब भी अवाक थे । सुनील ने बहन का वह हाथ सँभाल रखा था , जिसके ठीक बीचो-बीच वीगो की कीलें ( ? ) जबरिया ठोंक दी गई थी और अब उसमें इतनी असहनीय पीड़ा थी कि बेहोशी में भी बहन कराह रही थी ।
                स्नेह का वीगो वाला हाथ बुरी तरह सूज गया था । उसमें से कई बार खून भी निकला । उस ठिगनी सी हेड नर्स से कहा तो वह गुर्रा कर आगे बढ़ गई , " अब एक ही मरीज है क्या मेरे लिए...? जाकर वहाँ से रुई ले आओ और खून साफ़ कर दो...।"
              " तो फिर तुम लोग किस लिए हो...? " एक और मरीज के वीगो से खून निकला था , वह भड़क गया पर उससे ज्यादा वह ढीठ और दम्भी नर्स , " हम लोग किस लिए हैं , बता दिया तो अभी हवा निकल जाएगी...समझेऽऽऽ...। " फिर क्षणांश में सँभल भी गई , " उधर एक सीरियस मरीज है , उसे देख लूँ , फिर आती हूँ...तब तक तुम रुई से खून साफ़ करो...। "
              " सालीऽऽऽ , हरामज़ादीऽऽऽ...। " एक गाली फुसफुसाहट-सी उभरी और फिर हवा में घुल गई ।
               सामने के बेड पर से एक बूढ़े -से व्यक्ति यह सारा खेल बड़ी देर से देख रहे थे । उन्होंने नर्स को दूर जाते देखा तो धीरे से बोले , " बेटा , बोलने से कुछ नहीं होगा , बल्कि बात और बिगड़ेगी...। चौबीसो घण्टे किसी-न-किसी की होने वाली मौत ने इन्हें पत्थर बना दिया है...। "
               मुझे लगा कि वह आदमी नहीं , बल्कि उनका भय बोल रहा है । मैं मानती हूँ कि ढेर सारे लोगों में वे किसका-किसका दुःख बाँटें , पर अगर वे दुःख बाँट नहीं सकती तो किसी का दुःख बढ़ाने का भी उन्हें कोई हक़ नहीं है...। रही पत्थर होने की बात , तो वह पत्थर उस वक़्त क्यों पिघलता है , जब उनका कोई अपना मरता है ? उसी अस्पताल में कुछ और डाक्टर और नर्सें भी तो हैं , वे पत्थर सरीखा व्यवहार क्यों नहीं करते...?
              इमरजेन्सी वार्ड का मतलब क्या होता है ? आपातस्थिति में आने वाले मरीज ही तो वहाँ आते हैं न...। वे अपनी ज़िन्दगी से खुद ही इस कदर हारे होते हैं कि दूसरे मरीजों की बनिस्पत उन्हें ज्यादा प्यार , सहानुभूति और सहयोग की आवश्यकता होती है , न कि खड़ूस स्वभाव की...। डाक्टरी पेशा बहुत पवित्र समझा जाता है पर कुछ कुसंस्कारी इसे कलंकित कर देते हैं...इस पेशे के प्रति अविश्वास पैदा कर देते हैं...।
              इसी सन्दर्भ में इमरजेन्सी वार्ड की वह काली , भद्दी और क्रूर-सी दिखने वाली नर्स का चेहरा आज भी आँखों के आगे घूम कर उसके प्रति घॄणा जगा रहा है , जिसने नस ढूँढने के नाम पर यहाँ-वहाँ बार-बार सुई कोंच-कोंच कर मेरी बहन को तड़पाया था , जिसके कारण उसके हाथों से तीन-चार बार खून की धार बही और जिसके कारण स्नेह का हाथ इस क़दर सूज गया था कि हल्का-सा स्पर्श भी उसे तड़पा जाता । जितनी बार बहन तड़पती , उतनी ही बार मैं भी तड़प जाती और मन-ही-मन उस नर्स को श्राप देती कि एक दिन वह भी इसी तरह तड़पे...काश !




( जारी है )