Tuesday, October 19, 2010

रोइए...कि आप नर्क में हैं

( किस्त - नौ )


लखनऊ के पी.जी.आई में कहाँ-कहाँ से तो लोग आते हैं...बक्सर , गोण्डा , गोरखपुर , लखीमपुर , देवरिया और बिल्कुल पास के शहर कानपुर से भी...। कुछ ऐसे गाँव या शहर जहाँ या तो छोटे-मोटे डाक्टर हैं या फिर मुन्नाभाई छाप...। हार कर उनके पास ज़िन्दगी की आस का एक आखिरी सिरा बचता है और वह है सरकारी अस्पताल...। प्राइवेट अस्पताल के लिए सबकी औकात नहीं होती...वहाँ ज्यादा तोड़फोड़ की भी संभावना नहीं होती...। रही सरकारी अस्पताल की बात...मरीज के मर जाने पर जी भर कर तोड़-फोड़ कीजिए...डाक्टर को गाली दीजिए और फिर खुद भी जी भर कर गाली और लात-घूँसे खाइए...अपने बाप का क्या जाता है...। सरकारी है सब...सरकार जाने...। मरीज तो मर गया न...दो-चार घण्टे बवाल हुआ , फिर शान्त...। घर जाइए , मातम मनाइए...। डाक्टर को कृपया बख़्श दीजिए...। एक आपका ही तो प्रिय नहीं यहाँ मरने के लिए...अभी औरों को भी तो मरना है जनाब...। थोड़ा समझदारी से काम लीजिए ...। डेरा जमाया नर्क में और सुविधाएँ चाहते हैं स्वर्ग की ?
                 हाँ , यह सरकारी अस्पताल है भैयाऽऽऽ , सारी सुविधा है...जहाँ चाहो , हग-मूत लो...चाहो , थूक लो...जहाँ चाहो , डेरा जमा लो...कोई कुछ नहीं कहेगा , और अगर कहे भी तो क्या ? इतनी बेहयाई तो इलाज के वक़्त हर कोई साथ लाता ही है...।
                 ख़ैर , भीतर नर्क में चार-पाँच शौचालय बने थे...भीषण गन्दगी से अटे पड़े...। पीछे प्याला था , नल था चूता हुआ      पर डिब्बा नहीं था । पूरी आज़ादी थी...। कोई पायदान पर गन्दगी कर गया था तो कोई उसके आगे...। शौचालय अच्छा-खासा खेत सरीखा था...जहाँ चाहो बैठ लो...। मुझे लगा कि देश कि देश की एक-तिहाई आबादी नर्क में जीने की आदी है और जो नहीं हैं उन्हें सरकार बना रही है...पर नर्क के पहरेदार...? उनकी भी तो कोई जिम्मेदारी बनती है । माना कि नर्क मरीज और उनके तीमारदार बनाते हैं पर उनसे आप मोटी फीस भी तो वसूलते हैं किसी न किसी बहाने...। तो क्या उस फीस का एक अंश उस नर्क की सफ़ाई में नहीं खर्च किया जा सकता ? बाहर बार-बार चकाचक पोंछा मार कर आनेवालों को आकर्षित करने की बजाए यदि दस-पन्द्रह बार शौचालय की सफ़ाई की जाए , वहाँ ठीक से पानी-रोशनी की व्यवस्था की जाए तो इसमें हर्ज ही क्या है ? हमारे शॉपिंग मॉल में भी तो हर तरह की , अच्छे-बुरों की भीड़ उमड़ती है पर उनके शौचालय में ज़रा भी गन्दगी नहीं...। शॉपिंग मॉल्स की तरह अस्पतालों को भी भव्य आकार देकर भीड़ तो जुटा ली पर उससे उत्पन्न गन्दगी को दूर करने का रास्ता अपनाना कठिन लगा ?
                 यहाँ पैर रखने की जगह नहीं थी पर मरता क्या न करता ? एक छोटा सा कोना देख कर मैं और स्नेह दोनो ही फ़ारिग हुए , पानी कहीं नहीं था अतः दूसरों की तरह हम भी अपना काम कर बाहर आ गए पर उस एक क्षण में गन्दगी में खड़े जैसे सदियाँ बीत गई...छिः...।
                 बेहद लम्बे-चौड़े हॉल के एक किनारे रखे सोफ़े पर गुड़िया ने एक कोना किसी तरह छेंक रखा था । उस पर स्नेह को बैठा कर बड़ी बेचारगी से अंकुर की ओर देखा...। वह काफ़ी देर से खड़े-खड़े जैसे पस्त सा हो गया था । सभी के माथे से पसीने की धार बह रही थी । ऊपर छत पर टँगा पंखा भीड़ के आगे हार गया था ।
                 अंकुर हार मानने को तैयार नहीं था । वह उन लोगों में से नहीं था जो अच्छे वक़्त में प्यार का डंका बजाते गले लग जाते हैं , पर दुःख के समय खाली हाथ होने के भय से साथ छोड़ देते हैं । स्नेह ने अपनी जमा-पूँजी में से कफ़ी हिस्सा अपनी सबसे बड़ी बहन के चारों बच्चों पर भी क़ुर्बान किया था पर अपनी नानी की मौत के बाद उन्होंने ननिहाल की ओर मुड़ कर भी नहीं देखा...। उन्होंने तो यह भी नहीं सोचा कि जिन मौसियों माया और स्नेह ने रात-रात भर जाग कर उनके लिए स्वेटर बुने , जिन्होंने उनकी हथेली पर शगुन के नाम पर ढेरों रुपया रखा और जिन्होंने उनकी शादी में रात-दिन नहीं देखा , एक बार...बस एक बार उनकी ओर मुड़ कर देखते तो कि नानी के न रहने पर वह अकेली तो नहीं ?
                 पर अंकुर उनकी तरह स्वार्थी नहीं...। जिस बुआ ने उसे पाल-पोस कर इतना बड़ा किया , उनके लिए यह मेहनत कुछ भी नहीं...। उसके खून की एक-एक बूँद भी अगर उनके काम आई तो वह देगा । रजिस्ट्रेशन की तो औक़ात ही क्या ? कितनी भी परेशानी हो , रजिस्ट्रेशन तो वह करा कर ही दम लेगा...( और बाद में खून की जरूरत पड़ने पर अंकुर के अलावा छोटे भाइयों सुनील और विवेक  ने अपना खून दिया भी...। )
                
                  
( जारी है )

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