Wednesday, October 13, 2010

रोइए...कि आप नर्क में हैं

( किस्त- आठ )


तीखी धूप में हम सब का पूरा बदन जैसे जल रहा था और हम सब बेहद थके हुए थे , पर बावजूद इसके कोई किसी को दोष नहीं दे रहा था । गुड़िया और भतीजा अंकुर चुपचाप रजिस्ट्रेशन खिड़की की ओर चले गए । करीब सत्तर-अस्सी लोगों के बाद कहीं जाकर अंकुर को खड़े होने की जगह मिली । माथे का पसीना पोंछते वह चुपचाप लम्बी लाइन के पीछे खड़ा हो गया और बेचैनी से अपनी बारी का इंतज़ार करने लगा । स्नेह को बीच-बीच में दो-चार घूँट पानी के पिला देते...। वह पीती , फिर आँखें बन्द कर लेती कुछ इस तरह जैसे अनन्त आकाश का जायजा ले रही हो बन्द आँखों से...।
                   छोटे भाई राजू की आँखें भरी हुई थी । वह स्नेह का पैर सहला रहा था । मेरे भीतर भी जैसे रुलाई फूट रही थी । कैसे होगा इलाज...? अपने ही शहर में इलाज हो जा्ता तो ज़्यादा अच्छा था...इस कष्टप्रद प्रक्रिया से गुज़रना तो न पड़ता...। अपने शहर में क्या कोई भी ऐसा योग्य डाक्टर नहीं जो इस तरह के गम्भीर रोगियों के इलाज करने का जिम्मा ले सके ? बड़े-बड़े गैस्ट्रोलॉजिस्ट का नाम तो सुना है , फिर क्यों हमारे डाक्टर ने यहाँ भेजा...? 
                   ये कई सवाल थे जो वक़्त के साथ आगे सरक तो रहे थे पर बीच में ठहर भी जाते...ठीक उस लाइन की तरह जो रजिस्ट्रेशन खिड़की से लेकर बाहर सड़क पर जाकर ठहर सी गई थी...न आगे खिसक रही थी और न पीछे...।
                   समय सात बजे का पर खिड़की खुली बड़े आराम से आठ बजे...। उसके खुलते ही धक्का-मुक्की...रेलमपेल...। हर कोई आगे जाना चाह रहा था । जितनी जल्दी हो सके , रजिस्ट्रेशन करवा कर भर्ती कर दें । देर हो गई तो दूर ज़मीन पर , टैक्सी की खौलती चादर के नीचे या फिर खुले आसमान तले गर्म , सूखी घास पर लेटा मरीज कहीं सरक न जाए...। पर उन्हें क्या पता था कि यहाँ मरीज का सरकना या न सरकना उतना महत्वपूर्ण नहीं था , जितना महत्वपूर्ण था एक और लम्बी , उबाऊ , दर्दभरी प्रक्रिया से गुज़रना...और यह कष्टप्रद प्रक्रिया थी , डाक्टर को दिखाना...भर्ती होने के लिए उनकी रज़ामन्दी लेना...। हज़ारों की संख्या में मरीज...डाक्टर करे भी तो क्या करे...? उनके लिए अपनी खुशियाँ तो तबाह नहीं कर सकते न...। वे आराम से आएँगे...उसके बाद नम्बर पुकारा जाएगा...एक-एक कर आराम से आइए...एक-दूसरे को धक्का मत दीजिए । आपका प्रिय इतना कमज़ोर नहीं कि बिना इलाज के मर जाए...। अरे , अभी तो उसका लम्बा इलाज होगा , फिर मरेगा न...।
                   बगल में पसीने से बदबुआता एक ठिगना सा आदमी खड़ा बड़बड़ा रहा था , " कल से दौड़ रहे हैं रजिस्ट्रेशन के लिए...साला नम्बर आने से पहले ही खिड़की बन्द हो गई...। यहाँ तो..." एक भद्दी सी गाली हवा में तैरी कि तभी...
                   " दीदी...बाथरूम जाना है...।" टैक्सी में काफ़ी देर से लेटी स्नेह सहारा लेकर धीरे से उठ बैठी थी । भीतर हॉल में बैठने की जगह तलाशने गुड़िया और सुनील गए थे । उन्हें फोन किया तो उसने कहा ," दीदी , भीतर आ जाओ...यहाँ थोड़ी सी जगह मिल गई है । अगर हम बाहर आएँगे तो यह भी छिन जाएगी और हाँ , यहाँ सामने ही बाथरूम भी है...।"
                     मन दुविधा में पड़ गया । स्नेह का अशक्त शरीर और इतना लम्बा रास्ता...। क्या वह पैदल चलकर मीलों लम्बाई का अहसास कराने वाले रास्ते को पार कर पाएगी ? भीतर सैकड़ों की भीड़ में गिनती की कुर्सियों के लिए मारामारी थी , फिर...?
                     फिर क्या...बहन के तो अभी हाथ-पैर सलामत थे । जो एकदम टूटे-फूटे थे , वे भी अपनी टूट-फूट के लिए लिखा-पढ़ी करके कुर्सियाँ ले रहे थे और हम...।
                     बहन को दोनो तरफ़ से पकड़ कर चल तो सकते थे...हमने वह किया भी...। हाँफ़ते-काँपते किसी तरह बाथरूम पहुँच ही गए और फिर भीतर...? नर्क की ज़मीन पर हमने पूरी तरह पाँव रख दिया था...। छिः , इतनी गन्दगी...? इतनी गन्दगी तो शायद असली नर्क में भी नहीं होगी पर यह गन्दगी करता कौन है...?
                     मेरे मुँह बिचकाने पर प्याले के बाहर धार छोड़ता शख़्स बड़ी बुद्धिमत्ता से बोला ," हम ही न...हम क्यों नहीं बाथरूम को साफ़-सुथरा रखते...? क्यों नहीं प्याले को ठीक से इस्तेमाल करते...? क्यों नहीं ठीक से पानी डालते...?" प्रलाप-सा करता , भीतर गन्दगी छोड़ कर बिना पानी डाले वह बाहर चला गया । जी चाहा अभी दौड़ कर उसे कॉलर समेत भीतर घसीट लाऊँ और उसके थुलथुले गाल पर एक जोरदार झापड़ रसीद कर कहूँ , " हरामज़ादेऽऽऽ , लेक्चर देना बहुत आता है , पर करना कुछ नहीं...। तेरे जैसे जानवर ही यहाँ गन्दगी फैलाते हैं और भोगते हैं हम जैसे साफ़-सुथरे लोग...।" बाद में किसी ने बताया कि वह वहीं का आदमी था...सफ़ाई कर्मचारी या और कोई...???
                    सरकारी अस्पताल में अगर डाक्टर , नर्स या अन्य कर्मचारी लापरवाह हो जाते हैं तो क्या मरीज और उसके तीमारदार भी इतने लापरवाह हो जाते हैं कि बेशर्मी की हद पार कर इधर-उधर गन्दगी फैलाते हैं और फिर उसी गन्दगी में पाँव धर कर बाहर जाते हैं...। ऐसा करते समय क्या उन्हें ज़रा भी घिन नहीं आती ?



( जारी है )

1 comment:

  1. very true... but theses days Govt. is specially looking for management in hospitals... I think till mentality of a common man will not develop such probs will remain there... But honestly this story reminds me of my tour to hospital...

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