Monday, October 11, 2010

रोइए...कि आप नर्क में हैं

( किस्त - सात )


मौत से हाथ मिला लेने वाले इंसान और सरकारी अस्पताल का रिश्ता बेहद अजीब और क़रीबी है...। अजीब इसलिए क्योंकि कोई भी वहाँ ख़ुशी से नहीं जाना चाहता ...एक विचित्र सी आवाज़ होती है जो चुपके से तीमारदारों से कहती है कि चलो , नर्क का द्वार खुद अपने हाथों से अपने प्रिय के लिए खोलो...। यह आवाज़ का ही सम्मोहन होता है कि सबका दिमाग़ काम करना बन्द कर देता है । ऊहापोह के फिसलन भरे रास्ते पर वह बस फिसलता ही चला जाता है...और जब होश आता है तो वह अपने को एक ऐसी खाई में पाता है जहाँ चारो तरफ़ बस अंधकार ही अंधकार है । सच , अजीब रिश्ते की यह अजीब दास्तान है । अब बात है , क़रीबी रिश्ते की...तो वह् इस लिए कि चारो तरफ़ से द्वार बंद हो जाने पर एक यही अस्पताल ऐसा होता है , जो क़रीबी रिश्तेदार की तरह जल्दी स्वीकार तो लेता है , पर ज़्यादा दिन ठहरने पर ऊब भी जाता है । मेहमान कम ही दिन का अच्छा लगता है...जिसके ज़्यादा दिन ठहरने की उम्मीद हो , उसकी ओर ध्यान देना बन्द कर दो , वह परेशान हो कर खुद ही चला जाएगा ।
             पी.जी.आई अपने क़रीबियों से बड़ा अच्छा रिश्ता निभाता है...किसी को पता भी नहीं चलता...। कुछ दिन और ठहर जाने के भय से जब यह क़रीबी रिश्तेदार पर ध्यान देना बन्द कर देता है तब हारकर मेहमान चला ही जाता है ।
             लगभग आधे शहर को अपने भीतर समाए यह अस्पताल लखनऊ में ही नहीं बल्कि बाहर भी अपने नाम को ले जाकर एक अजब किरदार निभा  रहा है ।  एक ही प्लेटफ़ार्म पर न जाने कितनी गाड़ियाँ रुकती हैं । टिकट ( रजिस्ट्रेशन) खिड़की खुलने का समय सात से बारह बजे तक...पर भीड़ और देरी से बचने के लिए लोग सुबह पाँच बजे से ही डट जाते हैं । मरीज लम्बे-चौड़े , विशालकाय हॉल में रखे दो-चार पलंगनुमा सोफ़े पर पस्त पड़ जाते हैं , घर का कोई सदस्य उनके पास , तो कोई लाइन में धक्का खाता हुआ...। चारो तरफ़ भीड़ ही भीड़...झाँव-झाँव...एक अजीब सी उथल-पुथल...। किसी बड़े शहर का बड़ा स्टेशन...?
             हम लोगों का कभी इससे वास्ता नहीं पड़ा था । यद्यपि दूर-दराज के कई रिश्तेदार वहाँ जाकर वापस अपने घर आए थे और कुछ समय बाद लम्बे सफ़र पर निकल गए , पर किसी ने कभी गहराई से वहाँ की स्थिति को नापा ही नहीं...नापा तो अपनी कमी को...अन्तिम मोड़ पर हैं , डाक्टर कोई भगवान तो नहीं...।
             दोस्तों , मानती हूँ कि डाक्टर भगवान नहीं , पर एक अच्छे इंसान तो हो सकते हैं न ? ख़ैर छोड़िए...हमारे समाज की अच्छाई-बुराई इस पेशे में भी है , पर रंज तब होता है जब आप इसके बुरे पहलू में फँस जाते हैं ।
             वहाँ अच्छे इंसान भी बसते हैं पर उनसे वास्ता पड़ता तो इन पन्नों की शक़्ल कुछ और होती...। मैने तो जो देखा , जो भुगता , उससे एक ऐसी कड़वाहट घुल गई है मन में जो शायद ता‍उम्र धुल न पाए ।
             वहाँ पाँव धरते ही अपरिचित कष्ट से दो-दो हाथ...पहुँचते ही कराहते , धक्का खाते , इधर-उधर पस्त पड़े लोगों से सामना , आसपास खड़ी ढेर सारी कारें , टैम्पो , टैक्सियाँ...हर कोई हाँफता-काँपता , ढेर सारे सामानों से लँदा-फँदा...। यात्रा कितनी लम्बी है , कोई नहीं जानता । पड़ाव आएगा भी कि नहीं , कोई नहीं जानता । हम भी नहीं जानते थे...जानते थे तो सिर्फ़ इतना कि जल्दी से जल्दी वहाँ पहुँचना है । पर बावजूद इसके यह नहीं पता था कि ज़रा सी देरी हो जाने पर इस क़दर तपना पड़ सकता है चिटकती धूप में कि नानी याद आ जाए...।
             हम लोग अपनी समझ से सुबह के साढ़े तीन बजे ही टैक्सी से चल दिए थे पर वाह रे जाम...! रोज हज़ारों की संख्या में घटते हैं लोग , पर फिर भी इतनी भीड़...?
              कानपुर से लखनऊ पहुँचते-पहुँचते सात बज गए । टैक्सी सीधे जाकर पी.जी.आई के गेट पर रुकी । रजिस्ट्रेशन खिड़की से सटते हुए बाहर गेट तक एक लम्बी लाइन लग चुकी थी । उसे देखते ही हमारे पसीने छूट गए । आसमान पर सूरज अपने पूरे तीखे तेवर दिखा रहा था और नीचे हॉल में सिक्योरिटी गार्ड...। दोनो तरफ़ आग थी...।
              तीन घण्टे की यात्रा में हम लोग तो थक ही गए थे पर बहन का तो बहुत बुरा हाल था । उसकी पीली और कमज़ोर सी आँखों में एक ऐसी बेचारगी भरी थी कि उधर देखा नहीं जा रहा था । मेरी गोद में सिर और छोटे भाई की गोद में पैर रखे वह सोने का बहाना करती आई थी , पर बावजूद इसके , उसकी थकान साफ़ दिखाई पड़ रही थी । सुबह से न उसने कुछ मुँह में डाला था , न हमने...। वक़्त हाथ से सरकता जा रहा था । शायद उसे भी अहसास था , तभी हमारा सहारा लेकर वह धीरे से उठी , खिड़की के बाहर की लम्बी लाइन देखी और घबरा कर बोली ," दीदीऽऽऽ , घर वापस चलो...यहाँ तो तुम लोग भी बीमार हो जाओगी...।"
              " नहीं स्नेह...यह बहुत बड़ा अस्पताल है , यहाँ बहुत बड़े और अनुभवी डाक्टर हैं...वह तुम्हारा अच्छे से इलाज कर दें , फिर घर चलते हैं...।"
               " दीदी..." उसे बोलने में काफ़ी कष्ट हो रहा था फिर भी हमारी परेशानी , थकान , भूख-प्यास देख कर फुसला रही थी ," बड़ा तो रामा अस्पताल भी है , वहीं इलाज करा दो...। घर से दूर..." उसकी आँखें पता नहीं क्यों भर आई थी...शायद हमारी परेशानी को उसने भाँप लिया था ।
               आँखें तो हमारी भी भरी हुई थी पर हमने जबरिया भीतर की बरसात को रोक रखा था , उसे बरसने नहीं दिया । नहीं चाहते थे कि ऐसी गर्म बरसात के पानी में वह भीगे ।
               हमने पी.जी.आई के गेट से एक उचटती निगाह भीतर डाली और सहम गए । उफ़ ! इतनी भयानक भीड़...? क्या आधे से अधिक आबादी बीमार ही है ? इतने मरीजों के बीच क्या डाक्टर स्नेह पर ध्यान दे पाएगा ? कई सवाल हमारे भीतर काले-बदसूरत बादल की तरह उमड़-घुमड़ रहे थे , पर हमारे डाक्टर की बात ,"...रोग काफ़ी गम्भीर हो चुका है । पी.जी.आई ही एक ऐसा अस्पताल है जहाँ इसका इलाज हो सकता है...।"
               स्नेह ने एक घूँट पानी पिया और फिर हमारी गोद में लेट गई , सोने का बहाना करते हुए...। लगा , जैसे किसी ने कलेजा चाक कर दिया हो...। उसके घर जाती थी तो अक्सर दोपहर को वह आँख मूंदे लेटी हुई मिलती थी , पर जैसे ही हमें देखती , फटाक से उठ बैठती । पाँच-दस मिनट इधर-उधर की बातें करने के बाद सीधे रसोई में...। मेरा पसंदीदा नमकीन परांठा . अचार और चाय पल भर में मेरे सामने होता । एक तरफ़ नाश्ता करने का आग्रह करती जाती तो दूसरी तरफ़ आराम फ़रमा रही सबसे छोटी बहन गुड़िया पर बड़बड़ाती जाती ," यह बहुत आलसी हो गई है...यह नहीं कि कोई आ जाए तो उसे नाश्ता-पानी दे...।"
                             " दीदी ‘ कोई ’ हैं क्या...? और तुम कौन सी तीसमारखाँ हो...। मम्मी के समय तुम भी तो इसी तरह आराम फ़रमाती थी...। अरे , हमें सब याद है...।"
               " तो ठीक हैऽऽऽ...। मम्मी की तरह जब हम भी नहीं रहेंगे तो फिर हमारी जगह तुम घर सम्हालना...।"
                 बड़े-छोटे का भेद भूलकर घर के काम को लेकर अक्सर दोनो बहनों में छिटपुट तकरार होती रहती थी । उस समय तो मैं बात सम्हाल लेती ," अरे परेशान क्यों होती हो...अभी ही तो घर से खाकर आए हैं...।"
                 वह चुप हो जाती यह कहकर ," अरे दिया ही क्या है...? सिर्फ़ ज़रा सा नाश्ता ही न...। इसे यही समझाते हैं कि अभी से आदत डालो किसी को खिलाने-पिलाने की...हम कोई हमेशा तो बैठे नहीं रहेंगे...।"
                " क्यों...? कहीं जा रही हो क्या...?" एक ठहाका गूँजता और बात खत्म...।
                  उस ठहाके में मैं भी शामिल रहती पर आज उसकी बीमारी की गंभीरता को देखते हुए न जाने क्यों मन काँप रहा था और उसे देखते हुए सारी बातें याद आ रही थी । वह कहे हुए शब्द कहीं किसी आगम के संकेत तो नहीं थे...?
 

( जारी है )

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