Friday, October 1, 2010

रोइए...कि आप नर्क में हैं

किश्त - एक

सदियों से हमारे पुरखों ने सुना और गुना...उनसे हमारे बड़ों ने सुना...कि इस दुनिया से इतर भी एक दुनिया है...और उन्होंने अपने जीवन में उन सीखों को उतारा और फिर हमें बताया । हमारे पौराणिक ग्रन्थों के पन्नों पर भी यही अंकित है पर बावजूद इसके, इसकी सत्यता के बारे में कोई ठोस सबूत नहीं ।
अनुभव किए बग़ैर सत्य को कोई कैसे जान सकता है कि पापी आदमी मरने के बाद घोर नर्क में जाता है और विपरीत् इसके पुण्यात्मा स्वर्ग में...। आखिर नर्क है क्या और इसका अस्तित्व कहाँ है ? जो सुना था उसके हिसाब से तो नर्क में भीषण गन्दगी होती है...अजीब-अजीब जानवर और कीड़े-मकोड़े होते हैं...दया से परे क्रूर दैत्य व दानव होते हैं...। वहाँ हमेशा आग जलती रहती है जिसपर बड़ा सा तेल भरा कड़ाहा रखा रहता है । यमदूत पाप-कर्मों के हिसाब से दण्ड देते हैं...। कभी भाला चुभाते हैं तो कभी खौलते तेल में डाल देते हैं...। आदमी ( या आत्मा ) रोता है , गिड़गिड़ाता है पर मर्मान्तक पीड़ा देने के बाद ही यमदूत उसे बाहर निकालते हैं और बाहर भी राहत नहीं । बाहर, कुछ और खतरनाक जीव उस पर झपट्टा मारने को तैयार खड़े...। मुक्ति कहीं नहीं...न उसे और न उसके परिजनों को...। छिः , जब पाप किया है तो दण्ड भुगतो...। पर इसके विपरीत पुण्यात्मा स्वर्ग का भोग करते हैं...एक ऐसे सुख का भोग जो कल्पना से भी परे होता है । खूबसूरत, आलीशान आशियाना...सुन्दर-सुन्दर अप्सराएँ...सुरापान...सैकड़ों सेवक ( या बाडीगार्ड ?)...और छप्पन भोग...दुःख का नामोनिशान नहीं...।
बचपन में मैं बहुत शरारती थी । इस शरारत के चलते, अनजाने ही सही, दूसरों को सता डालती । मेरी माँ जब परेशान हो जाती तब खीज कर यही कहती," तुम्हें नर्क का डर नहीं क्या ?"
मैं हँस कर कहती," मरूँगी तब जाऊँगी न?"
माँ हार कर चुप हो जाती, पर वह भी कहाँ जानती थी नरक की पूरी परिभाषा...उसका पूरा सच...। वह तो अपने बच्चों को अच्छे संस्कार देते समय , बड़ों का सम्मान करना सिखाने के लिए जो भय अपने बच्चों के भीतर भरती थी, उसका तो कहीं अस्तित्व ही नहीं था...। बचपन में उन्होंने भी शरारत की आड़ में कई भूलें की होंगी और उस दौरान उनके बचपन ने भी मेरे ही बचपन की तरह स्वर्ग और नर्क की सच्चाई को नज़र-अन्दाज़ किया होगा...पर आज...?
आज तो मैं बच्ची नहीं...। इस लिए अपने बुजुर्गों से जो कुछ भी सुना, उसे पूरी तरह् नकारती हूँ...क्योंकि स्वर्ग और नर्क को मैने इसी धरती पर देखा है, उसे महसूसा है और वह भी जीवित इंसानों के माध्यम से...। अरे, मरने के बाद कोई कैसे बता सकता है कि वह कहाँ गया ?
अब स्वर्ग नर्क की परिभाषा ही नहीं बल्कि हमारे पौराणिक ग्रन्थों की महत्ता भी इस ग्लोबलाइजेशन के युग में पूरी तरह बदल चुकी है...। पाप और पुण्य से तो अब इसका वास्ता ही नहीं रह गया है । मेरी बात को नकार देने वाले क्या खुद इस बात को झुठला सकते हैं कि बड़े-बुजुर्गों का अपमान करने वाले , अशक्तों को सताने वाले, ग़लत ढंग से धन कमाने वाले, दूसरों को उल्लू बनाने वाले, ढोंगी बाबा आदि ही नहीं बल्कि भीषणतम अपराध करने वाले दबंग लोग स्वर्ग सा सुख उठाते हैं और विपरीत इसके इस कलयुग में भी जो सीधे-सादे , मासूम और संस्कारी लोग हैं, वे क्यों आम् की जमात में खड़े रह कर तन-मन-धन से दुःख भोगते हैं ? ग़रीब-दुखियों को दान देने से, जरूरतमन्दों की मदद करने और बड़े-बुजुर्गों की सेवा और उन्हें प्यार-सम्मान देने से स्वर्ग मिलता है ...आज के युग का भीषण नर्क क्या इन्हें झूठा साबित नहीं कर रहा ?
आज मेरे मन में माँ का दिया विश्वास भी टूट गया है । कभी सोचा नहीं था कि जीते-जी इस नर्क से मेरा वास्ता पड़ेगा । अपनी जानकारी में इस ज़िन्दगी में मैने ऐसा कोई पाप नहीं किया जिसके कारण मुझे नर्क की यातना झेलनी पड़े और जिस इंसान के कारण वह यातना झेलनी पड़ी, उसने तो बचपन में भी कोई शरारत नहीं की थी, किसी को भी नहीं सताया था । वह तो बेकसूर और मासूम थी, फिर नर्क की सज़ा क्यों...?
अगर ईश्वर कहीं है तो मैं उससे पूछना चाहूँगी कि क्या उसका कानून भी अन्धा है ? जो पाप करता है, ग़लत ढंग से नाम-दाम कमा कर समाज में वर्चस्व बनाता है, वह स्वर्ग का सुख भोगता है पर जो बेकसूर है, उसकी फ़रियाद भी नहीं सुनी जाती...बस सज़ा सुना दी जाती है...मौत की सज़ा...।
शायद वे सभी लोग , जिनका कोई अपना जीते-जी इस नर्क की यातना को भुगत चुका है, भगवान से नहीं बल्कि अपनी सरकार से, झक्क सफ़ेद लिबास में सजे चुस्त-दुरुस्त या तोंदियल नेताओं से, समाज सुधारने का दम भरने वाले मुखौटों से और जनता की भलाई के नाम पर नित नए कानून बनाने वालों से यह पूछना चाहेंगे कि जिसके पास राजनैतिक-सामाजिक दमखम है...इफ़रात धन है...सामाजिक सरोकारों का आधार है, क्या वही सुख के अधिकारी हैं ? शारीरिक दुःख हो मानसिक , हर कोई उन्हें अपनी हथेली पर् बैठाने को तैयार...पर यह जो आम आदमी है, वे क्या कीड़े-मकौड़े की तरह दुःख भोगने के लिए बने हैं ? उनकी आवाज़ न कानून सुनता है, न ईश्वर...। आखिर इस अन्धेर नगरी का कभी अन्त होगा या नहीं ? मैं समझती हूँ शायद नहीं । किसी की आवाज़ में अगर दम होता भी है तो वह आवाज़ कई बार उस कोड़े के भय से दब जाती है जो दिखाई दिए बग़ैर भी बरसता है ।

( जारी है )

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