Thursday, September 30, 2010

अपनी बात

आज मैं आपके सामने अपनी उस शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक के अंश लेकर आई हूँ जो मेरे हाल ही में भोगे गए एक डरावने सच को आपके सामने लाएगा । मैं अपनी इस कोशिश में कहाँ तक सफ़ल हुई हूँ , यह तो वक़्त ही तय करेगा , और तय करेंगे आप लोग भी...।

अपनी बात

यह न कोई कथा है जिसे बाँचने बैठी हूँ...और न कोई कहानी है , जिसे रस लेकर सुनाने चली हूँ...। यह ज़िन्दगी का एक ऐसा सच है , जिससे हर किसी का कभी न कभी वास्ता पड़ा है...। यह सच जितना डरावना है, उतना ही कुछ सिखाता भी है ।
ज़िन्दगी और मौत का फलसफ़ा हर किसी की समझ में नहीं आता और जिसकी समझ में आ गया, वह इस संसार का नहीं रहता...। राग-विराग, प्यार-घृणा, दोस्ती-दुश्मनी, रिश्तेदारी...सब इस फलसफ़े में उलझ कर रह जाते हैं । यहाँ तक कि निराशा के क्षणों में ईश्वर से भी विश्वास उठ जाता है । मन की आस्था इस कदर डगमगा जाती है कि सच और झूठ में भी आदमी फ़र्क करना भूल जाता है और भूल जाता है इस सत्य को स्वीकारना कि जो इस दुनिया में आया है, वह एक न एक दिन जाएगा भी ।
जिसे आघात लगता है, वह अपनी चेतना खोकर ही जीवन के सच को अस्वीकारता है पर यह स्थिति हमेशा तो नहीं रहती । चैतन्य होने पर जब इस सच से सामना होता है तब मन में एक सवाल जरूर उठता है कि भले ही मेहमान की तरह इन्सान इस दुनिया में आए और जाए पर साथ ही एक सन्तोष भी देकर जाए कि उसने अपनी उम्र तो गुज़ार ली, अपनों या दूसरों को कुछ दिया तो...और खुद भी सुख और दुःख की लहर-भंवर से सकुशल निकला भी...। पर जब अपना कोई प्रिय दूसरों की लापरवाही के चलते अधूरी उम्र में ही सहसा बीच भँवर में फँस कर आँखों के सामने से विलीन हो जाए और हम तट पर खड़े हाथ मलते ही रह जाएँ, तब कैसा लगता है ?
माताजी-पिताजी के वक़्त आघात तो लगा था पर एक सन्तोष था मन में कि भले ही बहुत लम्बा जीवन न सही , पर इतना तो उन्होंने जिया ही , जहाँ सुख-दुःख दोनो ही नदी के दो किनारों की तरह थे और उनकी भरी-पुरी गृहस्थी में हल्की सी हलचल थी तो शान्त बहाव भी था...। उनके बाद सहसा ही छोटी बहन बहुत ही कम उम्र में गई तो दर्द से छटपटाने के बावजूद हम बेहद असहाय थे । वह ज़िन्दगी के गहरे समन्दर के उस छोर पर थी जहाँ मौत का मगरमच्छ पूरा जबड़ा खोले खड़ा था और किसी भी पल अपने अन्दर ले सकता था । हम कोशिश भी करते तो उस तक नहीं पहुँच सकते थे ।
पर अभी हाल में १० अप्रैल २०१० को दूसरी बहन स्नेह की ज़िन्दगी और मौत से जंग इतनी गहरी हो गई कि कहीं न कहीं हम सब उसमें उलझ कर रह गए । यह मौत एक गहरा आघात तो दे ही गई पर कुछ ऐसे सवाल भी छोड़ गई है जिसका उत्तर पाना मेरे परिवार के लिए ही नहीं बल्कि उन सब के लिए भी जरूरी हो गया है जिन्होंने ऐसी ही जंग में अपनी हार से अपने प्रिय को खोया है...दुश्मन को और भी मजबूत होते हुए देखा है...मुसीबत के वक़्त रिश्तों को बिखरते देखा है और समझा है कि धन , पहुँच और दबदबे का इस सदी में कितना महत्व है...।
तकनीकी तरक्की के इस युग में यह सब जिसके पास है , वह मौत की जंग में हारे या जीते, पर इतना सन्तोष उसे जरूर रहता है कि जीतने के लिए उसने अपने साधनों के बल पर कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी ।
मैं चूँकि एक लेखिका भी हूँ और अपनी बहन की मौत से जंग की ही नहीं , वरन् उन सभी लोगों की तकलीफ़ की , उस प्रवास के दौरान जीवन्त गवाह बनी जो शब्दों में अपनी पीड़ा व्यक्त नहीं कर सकते...। रोज अख़बार के पन्नों पर इस पीड़ा को काले अक्षरों में उभरते देखती हूँ, उसे महसूस भी करती हूँ पर इससे इतर जो आँखों से देखा , उस दौरान जिस दुःख को झेला और सरकारी अस्पतालों की अन्दरूनी अव्यवस्था को देखा, उससे तो सिहर ही उठी हूँ और यह सिहरन भरा दर्द मेरे भीतर इस क़दर उतर गया है कि जब तक उसे व्यक्त नहीं कर लूँगी, तब तक मन को चैन नहीं आएगा ।
इस पुस्तक के माध्यम से न मैं अपने दर्द का बदला लेना चाहती हूँ और न ही खुन्नस निकालना चाहती हूँ...। चाहती हूँ तो बस इतना कि वे इन्सान जो जाने-अनजाने इस दर्द के जिम्मेदार बन जाते हैं वे महसूस करें और साथ ही इस सच को भी स्वीकार करें कि वे दंभ में किस कदर लापरवाही कर बैठे हैं...। अगर अपनी ज़िन्दगी अनमोल है तो दूसरों की भी तो है । उसके साथ खिलवाड़ क्यों ? मरीज और तीमारदार डाक्टर को भगवान का दर्जा देते हैं पर जब वही दगा दे जाए तो कहाँ सहारा है ? बाहर से साफ़-सुथरा , सजा-सँवरा आदमी अगर भीतर से मन का काला हो तो उसे माफ़ नहीं किया जा सकता ।
अपने देश में हजारों की संख्या में सरकारी-गैरसरकारी अस्पताल गोबरछत्ते की तरह उग आए हैं पर सरकार से सहायता मिलने के बावजूद सुविधा के नाम पर वे ज़ीरो हैं । कुछ अस्पताल अच्छी सुविधाएँ देकर जान तो बचा लेते हैं पर यह सब क्या आसान है ? अच्छी खासी कीमत चुकानी पड़ती है इसके लिए...।
विगत दिनो दैनिक अमर उजाला में ख़बर तो बड़ी अच्छी छपी कि ग़ैर संचारी रोगों- मधुमेह , कैंसर और दिल की बीमारी की रोकथाम के लिए केन्द्र सरकार राष्ट्रव्यापी अभियान शुरू करेगी । स्वास्थ्य मंत्रालय की इस योजना को हरी झंडी भी दे दी गई है ।
सभी जानते हैं कि हर वर्ष हज़ारों की संख्या में इन रोगों से लोगों की मौत होती है और इनकी रोकथाम के लिए योजनाएँ भी बनती हैं , पर होता क्या है ? क्या इससे मौत का आँकड़ा कम हो रहा है ? शायद नहीं...। हर कोई अपना काम करके किनारा कर लेता है । स्वास्थ्य मंत्रालय लाखों-करोड़ो रुपया सरकारी अस्पतालों को ऐसे रोगों के लिए अनुदान में देता है पर इसकी सुविधा कितनों को मिलती है ?
देश में बढ़ते भ्रष्टाचार से आज कोई भी अनजान नहीं है । रोज अख़बारों में, इलेक्ट्रानिक मीडिया में चीख़-चीख़ कर कहा जाता है," यह आम मत खाना , यह जहरीला है...इसे कैमिकल से पकाया गया है...। यह केला मत खाना, कैंसर हो जाएगा...। आटा सोच-समझ कर खरीदना...यह सड़े हुए गेहूँ का हो सकता है...।" और तो और , करेले और लौकी के जूस से लोगों की मौत की ख़बर मीडिया में कई रोज तक छाई रही । जिस मेवे को खाने पर हम गर्व करते थे, आज उसमें भी चमक के लिए गंधक का प्रयोग किया जा रहा है । इन सब के चलते बीमारियों से ग्रसित हो जब हम उस डाक्टर के पास जाते हैं जिस पर हम विश्वास करते हैं , तो अधिक से अधिक पैसा कमा लेने की ललक में वही हमसे विश्वासघात कर बैठता है ।
मिलावटी खाद्यान्नों को रोकने के लिए छापे मारे जाते हैं, सील डाली जाती है, अख़बार के कुछ पन्ने और रंग जाते हैं पर होता क्या है...? कुछ दिन बाद वही काम फिर शुरू हो जाता है । खाने के हर सामान में ज़हर है, कब नकली दवाओं से वास्ता पड़ जाए, नहीं मालूम...। ऊपर् तक् सुनवाई नहीं है, कोई जाए तो कहाँ जाए ? जिस् तरह् धरती और् हरियाली बचाने के नाम् पर् काग़ज़् पर् ही लाखों-करोड़ों पेड़् लग जाते हैं, उसी तरह ये साधन भी काग़ज़ तक् ही सिमट कर रह जाते हैं । रोगों के खिलाफ़ अभियान को हरी झंडी देने के साथ क्या यह भी महत्वपूर्ण नहीं है कि सबसे पहले शुद्ध खाद्य वस्तुएँ लोगों तक पहुँचाई जाएँ ? शुद्ध हवा, पानी, खाद्यान्न मिलेगा तो कई रोग खुद-ब-खुद थम जाएँगे । सरकारी या ग़ैर-सरकारी, यदि सभी अस्पतालों की व्यवस्था पर नज़र रखी जाए तो मौत का आँकड़ा शायद अपने आप कम हो जाएगा । पर यह सब कहने से क्या कोई फ़ायदा है ? जितनी भी आवाज़ें अन्याय के खिलाफ़ उठती हैं, वे मात्र चीख ही तो बन कर रह जाती हैं...पर किसी अन्याय् के आगे झुक जाना मेरी आदत नहीं...।
अन्य अस्पतालों की व्यवस्था-अव्यवस्था के बारे में ज्यादा चर्चा करना मैं जरूरी नहीं समझती । चूँकि मैं लखनऊ के पी.जी.आई में ही अपनी बहन के साथ रही, इसी लिए वहाँ जो कुछ भी देखा, जिसने मुझे दुःख दिया, मेरी बहन की दुर्दशा का भागीदार बना, उसी को मुख्य मुद्दा बनाया है । उस अस्पताल के लोगों से मेरी कोई निजी दुश्मनी नहीं है । मैं इस माध्यम से उन्हें या अन्य लोगों को जताना चाहती हूँ कि कभी-कभी बड़े नाम वाले भी बहुत छोटा काम कर जाते हैं । किसी को पीड़ा देते वक़्त उन्हें अहसास भी नहीं होता कि उन्होंने क्या कर दिया है...।
मेरी यह शाब्दिक पीड़ा मात्र पीड़ा नहीं है बल्कि यह बहुत कुछ सिखा भी गई है । यह् आँखों देखा एक ऐसा सच है जो बेहद डराता तो है पर दुश्मन का सामना करने की हिम्मत भी देता है ।
मैं इस पुस्तक के माध्यम से अपनी बहन की ही नहीं बल्कि उन सभी की हिम्मत की दाद देती हूँ जिन्होंने बड़ी बहादुरी से अन्तिम साँस तक इस जंग को लड़ा । उनके तीमारदार भी कम हिम्मती नहीं जो गोण्डा, बक्सर, लखीमपुर, कानपुर, गोरखपुर, छोटे शहरों, दूर-दराज़ के देहात, आदि जगहों से आए और मौत से हार कर , लुट कर , अपने प्रिय को खोकर घर लौट गए...ज़िन्दगी को एक बार फिर ज़िन्दादिली से जीने के लिए...।


( अभी जारी रहेगा )


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