Sunday, September 19, 2010

भीतर की बाढ़

कविता

भीतर की बाढ़

अभी तक

किताबों में पढा था

फ़िल्मों में देख़ा था

और

ज़ुबानी सुना था

गाँव में जब बाढ़ आती है

उजड़ जाती है

ज़िन्दगी

चील-कौओं का ग्रास बनता

ठहरता आदमी

मौत के जलाशय में

हरी काई सी जमी निराशा

पर कहीं

आकाश में

दीप सा जला सूरज

और इन सबके बीच

एक मनुआ है...

दिदियाऽऽऽ ,

सुना है

इस बार सहर मा बाढ़ आई है

और

तटवा किनारे पूरा सहर जमा है

तब,

पता नहीं क्यों

मेरे अंदर की जंगली बिल्ली ने

अपने पंजों को खोल दिया

तट किनारे जाकर देख़ा तो भूल गई

किताबों में पढ़ी

बाढ़ की त्रासद-कथा

याद रहा तो सिर्फ़

सदियों पूर्व का जल-प्रलय

और उस प्रलय के बीच

जन्मित सृष्टि

पर आज,

तट के किनारे

प्रलय का मुँह चिढ़ाती

सृष्टि आह्लादित थी

दृश्य सटीक था और अधुनातन भी

मेरी काली आँखों का लेंस सक्रिय हो उठा

मन ने कहा,

कोई दृश्य छूटने न पाए

जर्जर झोपड़ियों में

मौत की काली परछाई सा

ठहरा अंधेरा

और,

उस अंधेरे के बीच

चीथड़ों में लिपटा

दूधिया बदन

गंदलाए फेनियल पानी में

गले तक डूबे घर

घर की छत से चिपकी

ज़िन्दगी की भीख माँगती

कातर आँखें,

पर,

उन आँखों से बेख़बर

नपुंसकों की भीड़

जब-तब किसी पाजी बच्चे सी

ताली बजा रही थी

और बच्चा?

पता नहीं किसका

गंदे पानी के भंवर में था

रुकी ताली के बीच

कोई चीख़ा

उफ़...

वह डूब रहा है

और तभी कैमरा क्लिक हो गया

ओह!

कितनी ख़ूबसूरत बात

ज़िन्दगी और मौत एक साथ?

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