Wednesday, December 22, 2010

उफ़ ! भयानक अनुभव से गुजरते हुए...( 3 )

( किस्त - बाईस )



पी.जी.आई के नर्कवास के दौरान एक और ऐसा अनुभव हुआ जिसने उस क्षण मन में एक अजीब सी दहशत पैदा कर दी थी...।
               दिन के यही कोई ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे रहे होंगे । रोज भाई-बहन और भतीजा अंकुर टैक्सी से कानपुर से लखनऊ अप-डाउन करते थे...। जब ये लोग सुबह आ जाते तो रात को मेरे साथ रुका सदस्य या तो होटल चला जाता या वापस कानपुर...। स्नेह के पास हर वक़्त हम तीन-चार लोग बने रहने की कोशिश करते थे । उस दिन भी यही तैयारी थी कि अचानक हमारी मंजिल के वेटिंग रूम के पास मुझे भीड़ दिखी...। उत्सुकतावश मैं वहाँ गई तो सन्न रह गई...। नीचे बरामदे में काफ़ी गहरा काला धुआँ भरा हुआ था...। लोगों के शोरगुल के साथ धड़ाधड़ खिड़कियों के शीशे टूटने की आवाज़ माहौल को और भी दहशतनुमा बना रही थी ।
              नीचे के इमरजेन्सी वार्ड के पास से शोरगुल उठ रहा था । शायद आग वहीं लगी थी । भीड़ में तरह-तरह की बातें , " अरे , जहाँ आग लगी है , वहाँ काफ़ी लोग फँसे हैं...सब अशक्त हैं...। अगर आग पूर अस्पताल में फैल गई तो...? "
              काला धुआँ नीचे के बरामदे से और काला-घना होता हुआ फैलता जा रहा था...। गबरा कर भाई को फोन किया तो पता चला , वह और गुड़िया धुएँ के उस पार नीचे ही फँसे हैं...। भतीजा ऊपर ही था । स्नेह के पास मैं और वह घबराए हुए खड़े थे...। बाकी मरीज तो चल फिर रहे थे पर यह...? एकदम अशक्त...लाचार...। आग अगर भीषण रूप से फैलती हुई ऊपर आ गई तो इसे लेकर भागेंगे कैसे...? नीचे से भाई लगातार मोबाइल पर ढांढस बँधा रहा था , " घबराना नहीं , स्नेह दीदी के पास ही रहना...। " सिस्टर ने इमरजेन्सी डोर खोल दिया था , " आप लोग परेशान मत होइए...। आग पर काबू पाया जा रहा है...। फिर भी अगर कोई परेशानी होती है तो आराम से आप लोग इस रास्ते सीढ़ियों से उतर जाइएगा...। यह सीढ़ी सीधे सड़क की ओर जाती है...। "
               पेडियाट्रिक वार्ड के तीमारदारों ने अपने-अपने बच्चों को गोद में उठा लिया था और भागने की मुद्रा में इस तरह मुस्तैद खड़े थे कि जैसे हल्की सी भी चिंगारी दिखी तो वे सरपट भाग खड़े होंगे , पर इस सरपटबाजी के ख़्याल में वे यह भूल गए थे कि रास्ता एक ही था , जो ज्यादा चौड़ा भी नहीं था । ऐसे में अगर भगदड़ मची तो अपने बच्चों के साथ वे भी घायल हो सकते हैं ।
               अपनी अशक्त बहन के लिए जब मैने वहाँ की सिस्टर से अपनी चिन्ता व्यक्त की तो उस सह्रदय सिस्टर ने व्हील चेयर उसके बेड के पास लाकर कहा , " आप घबराइए मत आण्टी...वैसे तो यहाँ ऊपर कोई खतरा नहीं है , पर अगर खतरा हुआ तो आप और हम तो हैं न...। आपकी बहन को इस व्हील चेयर पर दोनो तरफ़ से उठा कर सुरक्षित बाहर ले जाएँगे...। "
               उसकी बात सुन कर थोड़ी तसल्ली जरूर हुई कि अच्छे इंसान अभी भी दुनिया में हैं , पर बावजूद इसके अब भी धुकधुकी बनी हुई थी कि भगदड़ में अगर कुर्सी न संभली तो...?
                वक़्त जैसे थम सा गया था और उसके साथ आग और धुआँ भी...पर किसी कर्मचारी के भीतर कुछ ऐसा भरा था जिसे वह धुएँ के बहाने उगल देना चाहता था , " आण्टी जी...आप नहीं जानती...हर दो-तीन महीने में यहाँ आग लगती है...। अरे नहीं , यह लगती नहीं , लगाई जाती है...। इसके बहाने करोड़ों का खेल जो होता है...। सरकार से मदद मिल जाती है...। फिर वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन भी तो है न...मदद के लिए...। आप ही बताइए , लैट्रिन में क्या टूटा था...? कुछ नहीं न...? आप ने गन्दगी साफ़ करने के लिए कम्प्लेन्ट की तो पूरा लैट्रिन ही तोड़ दिया गया...। "
              " पर इस खेल में तुम शामिल नहीं...? "
              " अरे , यह बड़ों का खेल है मेमसाहब...। आप नहीं समझेंगी इसकी गहराई को...। इतनी गहरी राजनीति है यहाँ कि बड़े से बड़ा फ़ेल हो जाए इसे समझने में...। "
              " तुम्हारा नाम क्या है...? यहाँ क्या काम करते हो...? तुम्हे यह सब कैसे पता...? क्या इसकी शिकायत कभी किसी बड़े अधिकारी से की है...? "
              " अरे बाप रे ! मरना है क्या मुझे...? " मेरे इतने सारे सवाल सुन कर वह सरपट भाग लिया...। दुःख और परेशानी के क्षणों में भी वहाँ खड़े लोगों के चेहरे पर मुस्कराहट उभर आई , " सही कह रहा है बेचारा...। छोटा आदमी है , बात खुल गई तो सच में बेमौत मारा जाएगा...। "
               " इस अस्पताल का खज़ाना भरा हुआ है पर फिर भी इन बेचारों को चुटकी भर ही दिया जाता है...। मन जला रहता है तो मुँह से ऐसी बातें निकलती ही हैं...। "
               " सच कह रहे हैं...पैसे की कमी नहीं है यहाँ...। देखिए न...चौबीसों घण्टे कहीं-न-कहीं तोड़फोड़...मरम्मत...। भीतर ऑपरेशन चलता रहता है और बाहर ठक-ठक की आवाज़...। किसी को क्या करना है इस झंझट में पड़ कर...हम अपना मरीज देखें कि यहाँ की राजनीति...। "
                 लम्बा-चौड़ा बरामदा...अल्ट्रासाउण्ड के लिए बेड पर पड़े मरीजों की लम्बी लाइन लगी है...। नम्बर आने में काफ़ी समय लगता है...। मरीज की पथराई , निराश आँखों को देख कर कब तक अपने दुःख को और गहरा करें...। इसे हल्का करने के लिए कुछ तो चाहिए , सो इसी तरह की गपशप ही सही...। सच्चाई क्या है , वही लोग जानें...हमें क्या...?
                 हाँ भैया...हमें क्या...? सच्चाई से इसी तरह लोग किनारा कर लेते हैं तभी तो भ्रष्टाचार बढ़ता जा रहा है...। बेशर्मी की हद होती जा रही है...।
                 बेशर्मी की बात पर याद आया । ऊपर के वार्ड में एक ही शौचालय था...। तीमारदार-बीमारदार सब वहीं जाएँ...। एक तरफ़ देशी व विदेशी दो लैट्रिन अगल-बगल...। उसके ठीक सामने भीतर ही पेशाब करने के प्याले...। ढेर सारे बूढ़े , अधेड़ , जवान...हर उम्र के आदमी नंगे होकर पेशाब कर रहे हैं...। मजबूर होकर औरतें , लड़कियाँ भी नज़रें नीची करके जा रही हैं...। इतना बड़ा अस्पताल है तो क्या मर्द-औरत के अलग शौचालय बनाने का ख़्याल किसी को नहीं आया...? बीमार पड़ते ही क्या इन्सान इतना बेशर्म हो जाए कि परायों के सामने ही नंगा हो जाए...? बीमारी क्या आदमी को इतना लाचार कर देती है...? और तीमारदार...उनके लिए भी बेशर्मी का रास्ता ही अख़्तियार करना मजबूरी बन गया था । 
                 इमरजेन्सी वार्ड में कुछ ऐसे भी बेशर्म ( या मानसिक विकृत...??? ) मरीज थे जो वार्ड के अन्दर भी पर्दा किए बग़ैर ही पेशाब का पॉट लेने लगते थे । वहाँ मौजूद हयादार औरतें नज़रें घुमा लेने के सिवा और क्या कर सकती थी...। इतने बड़े अस्पताल में स्त्री-पुरुष के अलग वार्ड के लिए भी जगह नहीं...?
                ये सवाल हमेशा मुझ जैसे लोगों को परेशान करते रहेंगे । यद्यपि अब ये तो तय है कि भविष्य में कभी मुझे या मेरे परिवार के किसी भी सदस्य को लौट कर , भूलवश भी ऐसे अस्पताल में नहीं जाना...। कसाइयों के हाथों अपने को सौंप देने से तो बेहतर है , अपने घर में मर जाना...। मौत से पहले इन्सान अपने घरवालों के साथ अपने दर्द को बाँट तो सकता है...। ऐसे अस्पताल में तो दर्द कम होने की बजाए और बढ़ जाता है...। हर के अन्दर इतना दर्द भरा होता है कि किसी हमदर्द को सामने पाते ही छलक जाता है...।
            
( जारी है )

Thursday, December 16, 2010

उफ़ ! भयानक अनुभव से गुजरते हुए... ( 2 )

( किस्त- इक्कीस )



इस अस्पताल के कष्टकारी अनुभवों के दौरान मैं एक अनुभव ता‍उम्र नहीं भूलूँगी...। जिस दौरान ऊपर के शौचालय में तोड़फोड़ चल रही थी , उसी दौरान समय-असमय बाहर का खाना खाने से मुझे फ़ूड-प्यॉजनिंग हो गई...। थोड़ी-थोड़ी देर में मुझे शौचालय की ओर भागना पड़ रहा था । एक घूंट पानी भी हज़म नहीं हो रहा था और न ही मेरे पास नीचे के शौचालय में पहुँच पाने का समय होता था । शौचालय और वार्ड की दूरी इतनी ज़्यादा थी कि कई बार उस ओर भागते-भागते भी कपड़ा खराब हो जाता । साथ ही मुझे उल्टियाँ भी हो रही थी...। इतनी भीषण गन्दगी और पानी की नदारती में चुल्लू भर पानी में डूब मरने की कहावत एक नए अर्थ में चरितार्थ हो रही थी । आखिर भाई से रहा नहीं गया...। पानी की ढेर सारी बोतलें खरीद लाया...किसी तरह उन्हीं से काम चला रही थी...। पर रात के यही दो-सवा दो बजे रहे होंगे...। खराब कपड़े को बाथरूम में धोकर फिर से उसी को पहना हुआ था क्योंकि ऐसी तबियत में मेरे पास कोई सूखा कपड़ा बचा ही नहीं था...। मरती क्या न करती...। गीले कपड़े पहने-पहने ही बार-बार जाकर स्नेह को भी देख रही थी...। बस्स , रात किसी तरह गुज़र जाए...।
               पर रात क्या गुज़रती है ? ऐसे कठिन समय में तो और भी लम्बी हो जाती है...। जीवन में इतनी लम्बी रात का तो मैने कभी अनुभव नहीं किया । सबसे छोटी बहन गुड़िया की हालत भी घबराहट में खराब थी...। दूसरे भाई-बहन भी जैसे खाना-पीना छोड़ बैठे थे...। उन्हीं की देखभाल के लिए गुड़िया रोज अप-डाउन कर रही थी लखनऊ और कानपुर के बीच...। मेरी बेटी की तबियत अलग खराब थी...वह गहरे डिप्रेशन में आ गई थी...। हार कर मैं और छोटा भाई सुनील ही वहाँ थे स्नेह की देखभाल के लिए...पर मेरी हालत...? क्या ईश्वर किसी अपराध का दण्ड दे रहे थे या हम सब की हिम्मत परख रहे थे ? मैं समझ नहीं पा रही थी और दिन-ब-दिन ईश्वर पर से आस्था जैसे ख़त्म सी होती जा रही थी...।
               हाँलाकि ऐसा नहीं था कि ह्मारा परिवार ही ऐसी समस्या या दुःख से गुज़र रहा था...। वहाँ तो ऐसे अनगिनत थे जिनका दुःख तो हमसे भी बड़ा था , पर सबके हाथ में कलम की वह ताकत नहीं थी जिसके माध्यम से दुनिया को यह कड़वा सच बताया जा सके...। सबके पास टकराने की हिम्मत भी नहीं थी...। भालों के पास कौन जाए...न जाने कब-कहाँ चुभ जाएँ...। इसमें भाग्य को दोष देकर ही उन्हें सन्तोष था पर मुझे नहीं...। दूसरों के बेवजह दिए दुःख को मैं आसानी से क़बूल नहीं करती । यद्यपि मेरी इस आदत के चलते स्नेह बहुत डरी-सहमी रहती और शायद उसी के कारण मैं जितने दिन भी उस नर्क में रही , चुपचाप सब सहती रही...।
               पर सहने की भी एक हद होती है...। इतना बड़ा अस्पताल और अगर किसी की हालत अचानक खराब हो जाए तो कोई डाक्टर तक उपलब्ध नहीं था...। भयानक दस्त-उल्टी से मेरी हालत बिगड़ गई थी । सुनील ने नर्स से किसी डाक्टर के बारे में पूछा तो उसने सुबह तक इन्तज़ार करने को कहा । पर फिर शायद उसे कुछ दया आ गई और उसी ने भाई को दवा का नाम लिखवा दिया । रात को तीन बजे वह बाहर जाकर दवा लेकर आया , तब कहीं सुबह तक मेरी हालत कंट्रोल में आई...। अगर समय पर दवा नहीं मिलती तो  कोई भी जानलेवा ख़तरा हो सकता था । शायद डीहाइड्रेशन के चलते मेरी किडनी फ़ेल हो सकती थी या शरीर के अन्दर कोई इन्फ़ेक्शन फैल सकता था...। यह बात उस नर्स ने ही बाद में मेरे भाई को बताई थी...। आज घर पर हूँ , पर उस क्षण को याद कर सिहर जाती हूँ...। बहन की ज़िन्दगी तो ख़ात्मे के कगार पर थी ही , पर उसके साथ अगर मैं भी...? कितना कठिन वक़्त था...। हम सब साझेदार बने उस कठिन वक़्त को निकाल रहे थे । अक्सर अच्छे इन्सानों के मुँह से यह जरूर निकलता है कि भगवान किसी दुश्मन को भी यह दिन न दिखाए...और हम कोशिश करते अच्छे इन्सानों में शुमार होने की...। काश ! हर कोई ऐसी ही कोशिश करता , पर हमारे चाहने से कुछ नहीं होता । सारी दुनिया में दो तरह के ही इन्सान हैं- अच्छे और बुरे...। अच्छे इन्सान दूसरों के दुःख में दुःखी हो जाते हैं और बुरे इन्सान दूसरों को कष्ट में देख कर खुश होते हैं...। एक दिन इस दुनिया से आगे-पीछे सभी को विदा होना है , तब इतनी ईर्ष्या , मारामारी क्यों...?  
दोनो हाथों से बटोरने के बाद भी दूसरे की सहायता करने की कामना क्यों नहीं होती ? हमारे हाथ में अगर किसी कि ज़िन्दगी बचाने का हुनर है तो हम उसे बचाते क्यों नहीं ? आज ज़िन्दगी के मायने क्या इतने बदल गए हैं कि हम उसमें और मौत में कोई फ़र्क ही नहीं कर पाते...? जायज-नाजायज़ तरीके से सुख के सारे साधन हासिल कर उसका भोग करते वक़्त हम यह क्यों भूल जाते हैं कि यह शरीर हमारे-तुम्हारे के भेद से परे होकर एक दिन उस सुख को नगण्य कर देगा...।
               भयानक अनुभवों से कभी-न-कभी हर कोई रू ब रू हुआ होगा । काश ! हम उसे ही याद करके दूसरों के दुःख में अपनी खुशी तलाशना बन्द कर दें तो यह दुनिया कितनी खुशनुमा हो जाए...।
                


( जारी है )

Wednesday, December 15, 2010

उफ़ ! भयानक अनुभव से गुजरते हुए... ( 1 )

( किस्त - बीस )



           वैसे तो ज़िन्दगी का नाम ही है , अनुभवों से गुज़रना...। आए दिन इन्सान नित नए अनुभवों से गुजरता है और उनसे बहुत कुछ सीखता भी है , पर अशक्तता के क्षणों में अगर कुछ ऐसे अनुभवों से गुजरना पड़े जिनकी आपने कल्पना भी न की हो तो क्या गुजरती है...? वह क्षण भले ही बीत जाए पर याद बार-बार कँपा देती है...। लखनऊ के पी.जी.आई के नर्क-वास के दौरान ऐसे ही कुछ अनुभव हुए जिन्हें याद करके आज भी या तो सिहर जाती हूँ या फिर वहाँ के लोगों के प्रति मन घृणा से भर जाता है...।
            लीवर ट्रान्सप्लाण्ट के वार्ड में स्नेह को भर्ती किए हुए लगभग एक सप्ताह बीत गया था । पीलिया हटने के लिए उसके पेट में स्टैंटिंग के बाद तीन थैलियाँ लगी थी और वह चलने-फिरने में पूरी तरह लाचार थी ।
            उस वार्ड में यद्यपि सभी मरीज गम्भीर थे , पर फिर भी वे थोड़ा बहुत चल-फिर सकते थे । एक मेरी बहन ही ऐसी थी जिसे पल-पल सहारे की ज़रूरत थी , पर बावजूद इसके वहाँ ज़्यादा देर ठहरना मना था । वार्ड में न कोई आया थी , न कोई वार्ड ब्यॉय...। पॉट भी देना हो तो खुद दो...बाथरूम ले जाना हो तो खुद...। चाहे जैसे करो...अलग से पैसा देने पर भी कोई करने को तैयार नहीं...। शौचालय वार्ड से काफ़ी दूर था । इतने अशक्त मरीज को किसी तरह व्हीलचेयर पर वहाँ तक ले भी जाओ तो शौचालय के भीतर भी थोड़ी दूर तक चला कर ले जाओ । हम भाई-बहन उसके साथ कभी-कभी खुद भी लड़खड़ा जाते थे...। पर मजबूरी थी...। प्रेशर आने के डर से उसने तो खाना-पीना ही छोड़ रखा था , शौचालय की उस भीषण गन्दगी से बचने के लिए हम भी जैसे उपवास ही करते थे । इससे मुझे भी कमज़ोरी सी महसूस होने लगी थी । किसी तरह अपने अशक्त हाथों से उसे संभालती , गन्दे पॉट को खुद पानी डाल कर धोती और तब जाकर उसे फ़ारिग करती...। इस दौरान भी कभी शौचालय का नल सूखा , तो कभी हाथ धोने के लिए पानी नहीं...। सो इन सब कामों के लिए भी पीने के पानी से काम चला कर सन्तोष कर लेते । जब नर्क में हैं ही तो गन्दगी से क्या घिनाना...किसी तरह स्नेह ठीक होकर वापस घर चले तो फिर कभी बिना परखे किसी अस्पताल का रुख़ नहीं करेंगे...।
            इतने कष्ट में हफ़्ता भर किसी तरह शौच का मामला निपट रहा था कि एक सुबह प्रेशर महसूस होने पर हक्का-बक्का ही रह गई...। उस मंजिल के एकमात्र शौचालय को बड़े विध्वसंक तरीके से तोड़-फोड़ डाला गया था । भीतर चार-पाँच मजदूर पूरे फ़र्श को तोड़ रहे थे...। वॉश बेसिन का नल बन्द कर दिया गया था और जगह-जगह बड़ी-बड़ी गिट्टियाँ पड़ी हुई थी । भीतर कमोड में मरीजों द्वारा या मजदूरों द्वारा इतनी गन्दगी कर दी गई थी कि उधर नज़र पड़ते ही आँखें जैसे पथरा गई...। बगल में एक छोटा , गन्दा सा गुसलखाना था जिसमें पीडियाट्रिक वार्ड के नन्हें बच्चों को उनकी माएँ मजबूरी में शौच करा रही थी...। बच्चे तो फ़ारिग हो रहे थे पर बड़े कहाँ जाएँ...?
             परेशान होकर तोड़फोड़ का कारण पूछा तो पास खड़े एक रोबदार आदमी ने  गुर्रा कर कहा , " ज़मीन दरक गई थी , ठीक की जा रही है...। "
            " भैयाऽऽऽ , कब तक ठीक होगा ? "
            " पता नहीं...। " काम बन्द करके उसका दरवाज़ा भी मुँह पर बन्द कर दिया गया , " आप लोग वेटिंग रूम की लैट्रिन में जाइए...नीचे हॉल में है...। "
              सुबह का वक़्त था...सभी का प्रेशर  तेज़ था...। कुछ को बर्दाश्त था तो कुछ को नहीं...। जो लोग बर्दाश्त कर सकते थे , वे दूसरे शौचालय की ओर दौड़ पड़े , पर जिन्हें नहीं था , वे...?
              मैं प्रेशर में तो थी ही , उधर बहन को भी महसूस हो रहा था...। पहली बार इस ज़रूरत के वक़्त आँखों में आँसू आ गए...। घर में तो देशी और विदेशी , दोनो तरह के साफ़-सुथरे शौचालय बने हैं और वो भी कमरे से अटैच...। मन में कोई भय नहीं कि आवश्यकता के वक़्त इन्तज़ार करना पड़ेगा , पर यहाँ...? काश ! कोई प्राइवेट कमरा मिल जाता तो शायद इतनी परेशानी न झेलनी पड़ती...। पर - " कमरे की कौन कहे , आप को बेड मिल गया , यही काफ़ी है मैडमऽऽऽ...वरना मैने तो सुना है कि ऊपर से कुछ दीजिए तो फटाक से कमरा क्या , पूरा सुइट बुक करा लीजिए...। "
              एक लड़का जो मेरा बड़बड़ाना सुन रहा था , मेरी बगल से यह कहता निकल गया...।
              परेशान होकर भाई भी इतने लम्बे-चौड़े बरामदे में इधर से उधर भटकता शौचालय की तलाश कर रहा था । आखिर थोड़ी देर बाद परेशानी दूर हुई...। लिफ़्ट से नीचे जाकर बच्चों के इमरजेन्सी वार्ड के पास एक साफ़-सुथरा शौचालय मिला । यद्यपि लाइन वहाँ भी थी पर ऊपर के वार्ड की तरह बद‍इन्तज़ामी नहीं थी और इसी के चलते राहत थी...।

( जारी है )
            

Sunday, December 12, 2010

दर्द की यह कौन सी ‘ मंडी ’ है ? - ( 7 )

( किस्त - उन्नीस )


डाक्टर शिवकुमार...मृत्यु के देवता ‘ शिव ’...पर शिव क्या सिर्फ़ मृत्यु ही देते हैं ? भगवान शिव के नाम को याद कर जब इनका नामकरण किया गया होगा , तब क्या इनकी आत्मा में ईश्वर का एक नन्हा-सा अंश भी समाया होगा ? शायद अगर वह नन्हा सा अंश इनमें होता तो यह अपने मरीजों की देखभाल में कोई कोर-कसर न छोड़ते...। पर उन्होंने तो स्नेह को पलट कर देखा भी नहीं , उसका हाल भी जानने की कोशिश नहीं की...सिर्फ़ अपना एक रुटीनी खेल खेलते रहे...। लॉबी में घण्टों इन्तज़ार के बाद अल्ट्रासाउण्ड के माध्यम से पेट के घाव को दबा-दबा कर यह जानने की कोशिश करते रहे कि रोग के जीवाणु किस गति से बढ़ रहे हैं , मौत का ग्रास बनने में मरीज को अभी कितना वक़्त और लग सकता है...और जब यह सब निश्चित हो गया , तो उन्होंने अपना हाथ इस तरह खींच लिया , जैसे वे कभी वहाँ थे ही नहीं...। भगवान अपने भक्तों को कभी बेसहारा नहीं छोड़ते...मरीज भी अपने डाक्टर को भगवान का ही दर्जा देते हैं , तब क्यों डाक्टर शिवकुमार ने भगवान के नाम को लजाया...?
                  लीवर ट्रान्सप्लाण्ट वार्ड की वह पतली-दुबली , अशक्त , पर बेहद फ़ुर्तीली सी उस माँ ने , जो लखीमपुर से आई थी , एक दिन आँखों में आँसू भर कर कहा था , " मेरे बच्चे यहाँ मेरा इलाज कराने लाए हैं या मुझे बेमौत मारने...? "
                  वहाँ के इन्तज़ाम से दुःखी होकर ही उन्होंने अपने बच्चों पर यह इल्ज़ाम मढ़ा था , पर इतना तो वे भी जानती थी कि चारो तरफ़ से हार कर ही वे एक आशा से वहाँ आए हैं...। अब यह बात दूसरी है कि दिन-पर-दिन उनकी आशा भी औरों की तरह निराशा में बदल रही थी और वह फ़ुर्तीली सी ममतामयी माँ , जो अपने बच्चों के लिए अभी और जीना चाहती थी , उसे देखने आने वालों की वहाँ तो आवभगत करती ही थी , पर घर लौट कर और भी ज्यादा आवभगत करना चाहती थी...। वह अपने पति को उस उम्र में नहीं छोड़ना चाहती थी और अपनी इसी जिजीविषा के चलते वह सुबह होते ही एक्सरसाइज़ व नाश्ता करने में जुट जाती...। अस्पताल का बेस्वाद खाना गले से नहीं उतरता तो अपनी बड़ी बेटी के हाथ का बना खाना ( बिना भूख के ही ) खाने की कोशिश करती , सिर्फ़ इस लिए कि अपने घर लौट सके...। सिर्फ़ एक बार और...थोड़ा-सा और सहेज दे घर को...। उन्होंने घर के मोह को नहीं छोड़ा , पर ज़िन्दगी ने उनके मोह को छोड़ दिया और एक दिन भरे मन से वह भी विदा हो गई...।
                 " विदा "...यह शब्द मन को कितना भारी कर देता है...। अपनी उम्र पूरी कर , दुनिया के तमाम तामझाम को समेट कर जब कोई दूसरी दुनिया में जाने के लिए अपने परिवार से विदा लेता है तो दुःखी होने के बावजूद मन के किसी कोने में यह सन्तोष भी रहता है , पर इसके उलट समाज में फैले भ्रष्टाचार के चलते जब कोई असमय ही विदा हो जाता है तो दुःख भीतर जड़ जमा लेता है...। काश ! लापरवाही बरतने वाले डाक्टर , क्रूरता से पेश आने वाली नर्सें , खाने के सामान को ज़हरीला बना देने वाले हैवान और हर वक़्त जैसे सोए हुए से रह कर बड़ी-बड़ी बातें करने वाले देश के तथाकथित नेता किसी के दुःख को महसूस कर पाते तो कितना अच्छा होता...।

                  
 ( जारी है )

Thursday, November 18, 2010

दर्द की यह कौन सी ‘ मंडी ’ है ? -( 6 )

( किस्त- अठ्ठारह )



एक बात गौर करने की है कि जहाँ जागरुकता है , धन है , नाम है और है दमदार शख़्सियत , वहाँ देखिए...अधिकतर यही होता है कि बड़ी-से-बड़ी बीमारी से भी आदमी स्वस्थ होकर बाहर आ जाता है ।
                   मेरी नज़रों के सामने ही एक नेतानुमा आदमी इमरजेन्सी वार्ड में भर्ती हुआ । साथ में तीन-चार बन्दूकधारी...। पता नहीं किस पार्टी से था , पर उसकी आवभगत में कोई कमी नहीं की गई । उन महाशय से कोई परिचय नहीं हुआ , पर न केवल रोबदाब से , बल्कि डील-डौल से भी वे नेता सरीखे ही लगे...। गैस की मामूली सी समस्या में भी उन्हें न केवल इमरजेन्सी में भर्ती किया गया बल्कि दूसरे दिन उन्हें कमरा भी मिल गया , जबकि हम सब के लाख अनुरोध के बावजूद हर बार यही कहा गया कि कोई भी कमरा खाली नहीं है । गनीमत है आपको यहाँ एक बेड तो मिल गया , पर इसे भी दो दिन के अन्दर खाली करना पड़ेगा...।
                   हर कोई अपनी भावनाओं को कागज पर उकेर नहीं पाता । जिस दिन यह सम्भव हो गया , उस दिन यह धरती छोटी पड़ जाएगी और दुःख का एक ऐसा महाग्रन्थ तैयार होगा जिसके लिए धरती रूपी लायब्रेरी में जगह ही नहीं बचेगी...। वहाँ की अलमारियों में अनगिनत किताबें पहले से जो अटी पड़ी है...।
                   दुःख का सन्दर्भ आते ही मेरी आँखों के आगे उस साँवली सी , कम उम्र महिला का चेहरा घूम जाता है , जो भीषण शोर से भरे उस बरामदे में भी एक सन्नाटे सी पसरी थी । बनारस ( वाराणसी ) से आई उस महिला के साथ उसका पति , देवर , देवरानी , जेठानी और यहाँ तक कि दो-चार पड़ोसियों का परिवार भी था , पर इतने लोगों से घिरे होने के बावजूद वह एकदम निःसहाय और अकेली थी...। घर पर एक विवाहिता बेटी और दस साल का बेटा उसके इन्तज़ार में थे , पर उन्हें नहीं पता था कि माँ अब कभी लौट कर घर नहीं आएगी...। पीलिया और लीवर सोरायसिस से ग्रसित माँ को चमत्कार भी नहीं बचा सकता...। आखिर क्यों...?
                   जब डाक्टरों ने मेरी बहन के साथ उस महिला के भी न बचने की बात कही थी , तब मेरे दिमाग़ में यह बात आई कि आज के युग में जब वैज्ञानिक बड़ी-बड़ी बातें ही नहीं करते बल्कि उसे कर भी गुज़रते हैं तो उसे चमत्कार का नाम दिया जाता है । आज जब कई होनहार डाक्टर अपने पेशे को गर्वित करते हुए मौत के मुँह में पहुँचे हुए इन्सान को भी जीवनदान देते हैं , तब उसे काबिलियत , हिम्मत , बुद्धिमत्ता और पेशे के प्रति ईमानदारी का दर्ज़ा दिया जाता है...। इसी युग में बिना बेहोश किए मरीज से बात करते हुए ओपन हार्ट सर्जरी की जाती है...सड़े-गले लीवर को हटा कर नया लीवर ट्रान्सप्लान्ट किया जाता है...कैन्सर जैसी भयानक बीमारी तक से निज़ात दिलाया जाता है , तब कुछ जगह , कुछ इन्सानों के साथ भेदभाव क्यों...?  
                   ऐसे में उन ‘कुछ’ डाक्टरों की काबिलियत और ईमानदारी पर अविश्वास किया जाए...? या फिर मान लिया जाए कि उन्हें सिर्फ़ सरकार से मिलने वाली अपनी मोटी तनख़्वाह और सहूलियतों से मतलब है...। ऐसे लापरवाह डाक्टरों को अस्पताल में रख कर मरीजों के साथ खिलवाड़ करने का हक़ किसने दिया है...? किसने उन्हें ज़िन्दगी की आखिरी घड़ियाँ गिनते हुए मरीजों के सामने ही उनकी मौत का ऐलान करने का हक़ दिया है...? क्या उन्हें इतनी भी तमीज़ और अक़्ल नहीं है कि परिजनों को अलग बुला कर ढाँढस बँधाते हुए एक शालीन तरीके से उनके प्रिय के विदा होने का संकेत दिया जाए...।
                   एक गम्भीर मरीज के सामने दूसरे मरीज की मौत की बात मज़ाक के तौर पर करते हुए क्या शर्म नहीं आती ऐसे डाक्टरों को...? अल्ट्रासाउण्ड कक्ष में मेरी बहन का अल्ट्रासाउण्ड करते दो डाक्टरों का मज़ाक मुझे भीतर तक साल गया था और साथ ही मेरी बहन को इतना कँपा गया था कि उसने घबरा कर डाक्टर की बाँहें हिला दी थी , " डाक्टर साहबऽऽऽ , क्या मैं...? "
                  घबरा कर मैने उसे चुमकारा , " नहीं...तुम नहीं , घबराओ नहीं...ये दूसरे के लिए बात कर रहे हैं...। "
                  उसने आँखें तो बन्द कर ली थी लेकिन एक अनजाना सा जो भय उसके चेहरे पर चिपक गया था , वह मेरे बार-बार चुमकारने और सान्त्वना देने के बावजूद नहीं हटा था...।
                  यह कैसा क्रूर मज़ाक था...? बाहर , वाराणसी से आई वह महिला आँखों में सन्नाटा भरे टुकुर-टुकुर इधर-उधर देख रही थी । उसके मायूस परिजन उदास थे और भीतर यह मज़ाक , " अरे यार...कल उसकी स्टैन्टिंग करनी है...। पीलिया चरम पर है...लीवर लगभग फ़ेल है...।"
                  " तो ? "
                  " अरे तो क्या...? अगर कल सुबह तक ज़िन्दा रहा तो उसका ऑपरेशन करूँगा भाई...। "
                  " आप अपने को क्यों कहते हैं सर , यह कहिए कि अगर वह कल सुबह तक ज़िन्दा रही तो ऑपरेशन करूँगा..." और फिर एक जोरदार ठहाका...।
                   सच कहूँ...मन-ही-मन मैने कहा था कि उस औरत की मौत की कामना करने वाले क्रूर , बेदिल इन्सान , काश ! तुम सुबह का सूरज सच में न देख पाओ...। मेरी बहन को कँपा देने वाले , एक दिन कोई तुम्हें भी ऐसे ही कँपा दे...।
                   आज मैं इन पन्नों पर अपना दर्द अंकित करते हुए यही कामना करती हूँ कि ऐसे लोगों के लिए मेरी बद्दुआ फलीभूत हो जाए...। पर ईश्वर क्या सबकी सुनते हैं...? शायद नहीं...। तभी तो बाद में फोन पर ही पता चला कि दस साल के उस बेटे की माँ लौट कर अपने घर नहीं गई , अपने बच्चे को दुलारने के लिए... गया तो उसका निर्जीव शरीर...।


( जारी है )
              

Tuesday, November 16, 2010

दर्द की यह कौन सी ‘ मंडी ’ है ? -( 5 )

( किस्त- सत्रह )



संकट की घड़ी में हर किसी को एक विश्वास की सख़्त ज़रूरत होती है । हर कोई ऐसे क्षण में चाहता है कि अस्पताल पहुँचते ही इलाज शुरू हो जाए । मरीज अगर ज्यादा ख़तरे में है तो प्रावेट डाक्टर अपनी साख बचाने के चक्कर में उसे हाथ नहीं लगाना चाहते । ऐसे में आदमी कहाँ जाए...? एक इमरजेन्सी वार्ड , आई.सी.यू या वेन्टीलेटर का ही सहारा बचता है पर वहाँ भी भ्रष्टाचार ने इस कदर पाँव पसार रखे हैं कि देख कर मन मायूस हो जाता है...। एक भुक्तभोगी सज्जन ने एक माने हुए अस्पताल का नाम न लेकर सिर्फ़ इशारा करते हुए बताया कि वहाँ आई.सी.यू में मरीज को वेन्टीलेटर पर रख कर कई दिनों तक उसके ज़िन्दा रहने का नाटक किया जाता है और उसके परिजनों को बार-बार विश्वास दिला कर कि उनका मरीज अभी ज़िन्दा है और बच जाएगा , उनसे मोटी फ़ीस वसूली जाती है जबकि सच्चाई यह होती है कि मरीज कब का मर चुका होता है...। मानवता को कलंकित करने की यह कैसी इंतहा है...? 
                 इस सन्दर्भ में जब मैने उनसे उस अस्पताल की पोल-पट्टी खोलने की बात की तो एक अनजाना भय उनके चेहरे पर उभर आया और वे दस मिनट में मुझे समझा कर इस तरह खिसके जैसे कभी वहाँ थे ही नहीं...।
                उनके जाने के बाद भी उनकी बातें मुझे बहुत कुछ सोचने और कहने को मजबूर करती रही । उन्होंने एक तरह से ग़लत नहीं कहा , " यह किसे सुधारने की बात कह रही हैं ? जानती हैं यह कौन सा डिपार्टमेन्ट है...ज़िन्दगी बचाने वाला...। आप इससे टक्कर लेंगी तो चुटकियों में मसल कर रख देगा ज़िन्दगी...। "
               " अरे , ये पाँव में चुभे मामूली काँटे नहीं हैं कि खुरचा और काँटा बाहर...। ये भाले हैं...भाले...सीधे छाती में उतर जाएँगे और आप कुछ नहीं कर पाएँगी...। आपका तो जो नुकसान होना था , वो हो गया न...आप क्या कर पाई...? आपके सामने इलाज की लापरवाही के चलते आपकी बहन सैप्टीसीमिया ( सैप्टिक ) की गिरफ़्त में आ गई और उसकी ज़िन्दगी ख़ात्मे की कग़ार पर है...उसकी ज़िन्दगी आप बचा पा रही हैं...? आपको और आपके भाई-बहनों को पागलों की तरह डाक्टर के पास भागते हुए मैने देखा है...। अभी तक तो आपने उनसे कोई बदसलूकी भी नहीं की...कोई नुकसान नहीं किया , फिर भी ये भाले चुभे न...? अब आगे की सोचिए...। जो नुकसान होना था , हो गया , उसकी भरपाई नहीं हो सकती । आप लेखिका हैं , इतना तो समझती ही हैं न कि आज के ज़माने में ज्यादातर लोगों के सीने में दिल नाम की चीज ही नहीं है...। ये पत्थर हो चुके हैं...। इस पर सिर पटकने से कुछ नहीं होगा...बल्कि अपना सिर ही फूटेगा...। दूसरों की भलाई के चक्कर में खुद क्यों घायल होना चाहती हैं...? हर आदमी इस संकट से जूझ रहा है , मर रहा है , पर कर कुछ नहीं पा रहा है...। जो पुरजोर कोशिश करते भी हैं , अन्त में वे भी हार कर बैठ जाते हैं...जैसे मैं...। "
                 " जैसे मैं..." ये शब्द जैसे मेरे भीतर जाकर सन्नाटे की तरह पसर गया था । मेरे परिवार की तरह शायद उन्होंने भी कोई बड़ा हादसा झेला था , तभी मन में इतनी कड़ुवाहट...इतनी आग...और भी बहुत कुछ उन्होंने अपशब्दों के माध्यम से कहा था , जिन्हें यहाँ दोहराना मैं उचित नहीं समझती , पर इतना जरूर समझ गई हूँ कि अगर सारे भुक्तभोगी एकजुट हो गए तो ज़िन्दगी बचाने का नाटक करते हुए चुपके से उसे ख़त्म करने वाले मुर्दादिल भ्रष्टाचारियों के जीवन में आग ही लग जाएगी...। अगर सरकार ही जागरुक हो जाए तो न जाने कितनी ज़िन्दगियाँ नर्क की ज़िन्दगी जीने से बच जाएँ...।


( जारी है )
                  


Saturday, November 13, 2010

दर्द की यह कौन सी ‘ मंडी ’ है ? - ( 4 )

( किस्त - सोलह )





एम्बुलेन्स आ गई थी । स्नेह को लेकर हम लोग कानपुर की ओर रवाना हो गए । ज़िन्दगी की एक आस थी जो डाक्टर अनूप अग्रवाल ने दी थी । कानपुर का कुलवन्ती अस्पताल...बहुत बड़ा तो नहीं , पर वहाँ के डाक्टर और नर्स बहुत बड़े हैं...कर्तव्य से...भावना से...। उन्होंने अन्तिम दम तक मौत से लड़ने का वायदा किया...दिलासा दिया और सब कुछ ऊपर वाले पर छोड़ देने का भरोसा...। संसार में चमत्कार भी होते हैं शायद...।
              स्नेह के मुँह में आक्सीजन लगी थी और ए.सी एम्बुलेन्स लगातार हॉर्न बजाती , भीड़ को परे करती , पूरी रफ़्तार से कानपुर की ओर भाग रही थी...। जीवन में पहली बार एम्बुलेन्स से वास्ता पड़ा था और उस वास्ते का अनुभव भी कैसा...?
              अर्धबेहोशी में स्नेह बार-बार ऑक्सीजन की नली हटा देती...। एक हाथ से ऑक्सीजन पकड़े , दूसरे हाथ से स्नेह को संभाले तेज़ रफ़्तार गाड़ी में खुद को संभालना मुश्किल हो रहा था...। छोटा भाई राजू भी दोनो तरफ़ से उसे पकड़े बैठा था...। बाकी भाई-बहन पहले ही तेज़ रफ़्तार से अपनी गाड़ी से कानपुर रवाना हो चुके थे , हम लोगों के पहुँचने से पहले ही अस्पताल में सारी व्यवस्था करने...।
              एम्बुलेन्स जैसे चल नहीं , उड़ रही थी...। पहले मैं इसका तेज़ , कानफाड़ू हॉर्न सुनकर अपनी गाड़ी किनारे तो कर लेती थी और मन में हल्का दुःख का अहसास भी होता था कि उस गाड़ी में पता नहीं कितना गम्भीर मरीज होगा . पर आज...आत्मा की पूरी गहराई तक इस दुःखभरे क्षण में अहसास हो रहा था कि बाहर कितना भी शोर हो , पर भीतर ज़िन्दगी और मौत की जंग लड़ती अपनी बहन के कारण जो सन्नाटा पसरा था , वह बहुतों ने अपने लिए महसूस किया होगा...।
                एक तरफ़ बहन का दुःख था तो दूसरी तरफ़ एक अजीब सा सन्तोष भी था...उस भीषण नर्क से छूट जाने का...। नर्क काफ़ी पीछे छूट गया था , पर उसके प्रति मेरी घृणा , मेरा आक्रोश ज्यों-का-त्यों था...।
                बहुत दिनों पहले मैने श्री हरिवंशराय बच्चन जी की आत्मकथा " क्या भूलूँ , क्या याद करूँ " पढ़ी थी । वे एक महान हस्ती थे । उन्होंने अपनी आत्मकथा में जो कहा , वह बेमिसाल और अमर हो गया । पर मैं अपने स्तर पर यह नहीं समझ पा रही हूँ कि अपने उस पन्द्रह दिनों के नरकवास का मैं क्या याद रखूँ और क्या भूल जाऊँ...?
                क्या उस पच्चीस-छब्बीस साल के नौजवान को भूल जाऊँ , जो आँत के ऑपरेशन के बाद कंकाल-सरीखा लग रहा था...। जो कुछ उसके पिता से सुना , उससे यही पता चला कि कुछ महीने पहले पी.जी.आई में ही उसकी आँत का ऑपरेशन हुआ था , पर कुछ दिनों बाद एक अजीब सी गिल्टी फूल आई थी उसके पेट के निचले हिस्से में...मजबूरन वह दोबारा वहाँ आ गया...। पिता की आँखों में इस क़दर बेचारगी भरी हुई थी कि पास खड़े एक बुजुर्ग को बर्दाश्त नहीं हुआ । उसने कहा , " यहाँ दोबारा नहीं आना चाहिए था...। "
              " क्या करूँ भैया...दूसरा डाक्टर इसे हाथ नहीं लगा रहा था...। कह रहा था , जहाँ इसका ऑपरेशन हुआ है , वहीं ले जाओ...। " कहते-कहते उसकी आवाज़ रुँध गई । आगे वह कुछ नहीं बोल पाया ।
               जिस डाक्टर ने ऑपरेशन किया था , वह तरह-तरह के फलसफ़े झाड़ कर बाप को समझाने की कोशिश कर रहा था और बाप के पास सिर हिलाने के सिवा कोई और चारा नहीं था...। उस वक़्त वह डाक्टर ही उसका भगवान था । चाहे तो बचा ले , चाहे तो...। उसी समय मैं वापस चल दी थी । पता नहीं हाड़-माँस के उस अकेले या उस जैसे सैकड़ों का क्या होता होगा...? अब इस युग में ‘ राम जाने ’ भी नहीं कह सकती...कोई मायने भी तो नहीं है...।
               प्राइवेट अस्पतालों के इमर्जेन्सी वार्ड की हालत तब भी बेहतर है...आखिर उन्हें अपना नाम जो कायम रखना है , पर सरकारी अस्पतालों की हालत अन्य सरकारी विभागों की तरह ही है । कोई सुनवाई नहीं वहाँ...सब बहरे हैं जैसे...।
               दर्द की उस मंडी की उस करुण चीख को भी नहीं भूल सकती जो एक युवा सरदार के मुँह से चीत्कार बन कर निकली थी और पूरे इमरजेन्सी वार्ड को कँपा गई थी...।
                उस नौजवान सरदार का पूरा शरीर ल्यूकोडर्मा की गिरफ़्त में था । दुबला-पतला , बेहद अशक्त सा वह युवक बहुत बेचैन था । उस वार्ड में हर कोई अपने-अपने प्रिय की देखभाल में व्यस्त था । किसी के पास भी इतनी फ़ुर्सत नहीं थी कि वह जाने कि आखिर उसे हुआ क्या है और वह इतना अधिक बेचैन क्यों है...?
                बला की गर्मी थी इमरजेन्सी वार्ड में...। सिरहाने चलता पंखा हर कोई अपने ऊपर करने की होड़ में था । मरीज...तीमारदार...सब पसीने से तर-ब-तर...। बार-बार पानी पीने के बाद भी गले की चटकन कम नहीं हो रही थी । लगता था जैसे प्यास हलक में कहीं अटक गई हो...। ऐसी जानलेवा गर्मी में आदमी बीमार पड़ता है और फिर घर-बार छोड़ कर उसे नर्क में आना ही पड़ता है...।
                 इस नर्क में कौन उस युवक को यातना दे रहा था ? एक अधेड़ सी महिला और दूसरी कुछ युवा सी , उसे पैरों और कन्धे की ओर से कस कर पकड़े हुई थी...कुछ इस तरह कि बस उसे जिबह किया जाना है...। एक नर्स जबरिया उसकी नाक में नली ठूँसते हुए गुर्रा रही थी , " पियोऽऽऽ , चलोऽऽऽ , पानी पियो..." और वह महिलाओं की पकड़ से छूटने का प्रयास करता हुआ इतनी बुरी तरह डकरा रहा था कि हमारी तो रुह ही काँप गई । यातना की यह कौन सी अंधी सुरंग थी जहाँ बदनसीबी से हम सब आकर फँस गए थे...। एक तरफ़ खाई थी और दूसरी तरफ़ फिसलन भरी सपाट चट्टान...। रास्ता इतना संकरा और चिपचिपा था कि चलना मुश्किल...। अनचाहे ही सही , ठहरना जरूरी था...।
                ठीक है कि वह युवक मुँह से पानी भी नहीं ले पा रहा था और नली डाल कर खाना-पानी देना ज़रूरी था , पर क्या यह भी ज़रूरी था कि उस प्रक्रिया को इतनी बेदर्दी से अंजाम दिया जाए...?
                यहाँ कानपुर के कुलवन्ती अस्पताल मे स्नेह के आखिरी समय में जब उसने खाना-पीना त्याग दिया था और डाक्टर ने नली लगाने की बात कही , तो मैं भय से चीख पड़ी थी और इसका पुरजोर विरोध किया था । मेरे इस विरोध पर डाक्टर ने बड़ी नर्मी से समझाया था कि देखिए , ज़िन्दगी को समय देने के लिए यह ज़रूरी है...। हम इसके माध्यम से जूस , पानी तो देंगे ही , साथ ही दवा भी आसानी से दे सकेंगे...। मैं मजबूर थी हामी भरने के लिए , पर उस समय दंग रह गई , जब डाक्टर ने बेहद कोमलता से , बहन को दर्द का ज़रा भी अहसास कराए बग़ैर उसकी नाक में नली डाल दी और फिर उतनी ही आसानी से उसे दवा-पानी देने लगे...।
                मैं सोचने पर मजबूर थी...। अस्पताल दोनो ही हैं , पर दोनो में इतना फ़र्क क्यों...? डाक्टर व नर्स यहाँ भी हैं , पर वहाँ मानवता-प्यार कम क्यों...? जहाँ प्राइवेट अस्पताल को अच्छा-से-अच्छा इलाज करके अपनी साख़ बचानी होती है , वहीं सरकारी अस्पताल लापरवाही बरत कर सरकार के मत्थे सारा दोष क्यों मढ़ देते हैं...? सरकार उन्हें मोटी तन्ख़्वाह देती है तो क्या सिर्फ़ इसलिए कि  वे सरकार पर सारी ज़िम्मेदारी डाल कर खुद मस्त हो जाएँ...? उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि वक़्त किसी का नहीं होता...। एक दिन उन्हें भी उस प्यार की झप्पी की सख़्त जरूरत पड़ सकती है , जिसे वे अपने मरीजों को देने में अपनी हेठी समझते हैं...।
                 


( जारी है )

Thursday, November 11, 2010

दर्द की यह कौन सी ‘ मंडी ’ है ? - ( 3 )

( किस्त - पंद्रह )



 बहन की ज़िन्दगी का सफ़र ख़त्म होने की कगार पर था...यह मुझे नहीं , वहाँ के वार्ड इन्चार्ज को लगा होगा , तभी वह बड़े सधे कदमों से मेरे पास आया और रूखे शब्दों में बोला , " पन्द्रह मिनट में यह बेड खाली कर दीजिए...हमें दूसरा मरीज भी भर्ती करना है...। "
             " मैं कुछ नहीं जानती...। जब तक मेरे भाई-बहन नहीं आ जाएँगे , तब तक मैं यहाँ से हिलूँगी भी नहीं...। "
             मेरे स्वर की दॄढ़ता भाँप कर वह नर्स से गुर्राया , " सिस्टरऽऽऽ , इनकी क्या प्रॉब्लम है , मुझसे मतलब नहीं...। आफ पन्द्रह मिनट के अन्दर इस पलंग को बाहर कर दीजिए...। "
             अब गुर्राने की बारी मेरी थी । अगर मैं ऐसा न करती तो उस भीषण गर्मी में वह बेदर्दी से पलंग को बाहर कर देती...।
             बहन पूरी तरह बेहोश थी । नर्स ने मेरे मना करने के बावजूद उसका वीगो निकाल दिया , सारे इंजेक्शन हटा दिए और फिर आगे बढ़ी , पलंग घसीटने के लिए , " ये तो एक तरह से ख़त्म हैं...इन्हें यहाँ रखने से कोई फ़ायदा नहीं...आप हटिए आगे से...। "
            " नहींऽऽऽ , मैं नहीं हटूँगी...। ये ख़त्म नहीं है...इसकी साँस चल रही है...। जब तक मेरे भाई-बहन नहीं आ जाते , मैं इसे छूने भी नहीं दूँगी...। अच्छा यही होगा कि इसके साथ कोई जोर-जबर्दस्ती न करो...। " नर्स ने आग उगलती आँखों से मेरी ओर देखा और जाकर उस ठिगने इन्चार्ज से कुछ कहने लगी । इन्चार्ज ने मुड़ कर मेरी ओर देखा , फिर उसकी उँगलियाँ बड़ी तेज़ी से कम्प्यूटर के की-बोर्ड पर चलने लगी । जितनी तेज़ उसकी टाइपिंग की खटपट थी , उतनी ही तेज़ मेरी सिसकियों की आवाज़...। बहन के ख़त्म ( ? ) हो जाने की बात कह कर उसने मेरे भीतर बँधे बाँध को तोड़ दिया था ।
              बाहर भाई-बहन मानो मीलों लम्बा सफ़र तय करके उस डाक्टर को ढूँढ रहे थे , जिसकी लापरवाही के चलते मेरी बहन की दुर्दशा हुई थी और वह उसे बीच अधर में अटका कर कहीं गुम हो गया था ।
              किसी ने कहा कि डाक्टर ने वहाँ की नौकरी छोड़ दी है , कोई कहता कि नहीं , वे ऑपरेशन में व्यस्त हैं...। बार-बार मिलाने पर भी उनका फोन नहीं उठ रहा था । भूखे-प्यासे भाई-बहन थक कर कभी बाहर बैठ जाते तो कभी वार्ड में आकर मुझे धीरज बँधाते , " परेशान मत हो...कुछ नहीं होगा...। एक बार किसी तरह डाक्टर साहब से बात हो जाए तो फिर सोचते हैं कि क्या करना है...। "
              आखिर डाक्टर गए तो गए कहाँ...? जूनियर डाक्टर हाथ नहीं लगा रहे थे । यह किसके कहने पर इलाज बन्द कर दिया गया ? बार-बार कहने पर भी स्टैन्टिंग के घाव पर ड्रेसिंग क्यों नहीं की जा रही ? स्नेह अभी ज़िन्दा थी , पर फिर भी उन लोगों ने उसे मृत समझ लिया था । हम लोगों ने धीरज नहीं खोया , पर इतनी बात समझ में आ गई कि ऐसे निर्दयी डाक्टरों के चलते ही अस्पतालों में आए दिन बवाल होता है , पर फिर भी हारता तीमारदार ही है । रसूख़दार और ज़िम्मेदार पेशे में होने के कारण ये डाक्टर हमेशा जीत जाते हैं...। न कानून इन पर कोई ठोस कार्यवाही कर पाता है और न तीमारदार ही...।
               हम सब भी इसी मजबूरी के चंगुल में थे । स्नेह अब भी बेहोश थी । उसकी साँस चल रही थी और उसके साथ हमारी आशा भी...। काफ़ी समय बीत जाने के बाद एक जूनियर डाक्टर आया और समझाने की मुद्रा में बोला , " देखिएऽऽऽ , आप लोग सब कुछ ख़त्म हुआ ही समझिए...। ये दो-चार दिन भी ज़िन्दा रह सकती हैं और दो-चार घण्टे में भी कुछ हो सकता है...। आप लोगों को अगर विस्वास न हो तो गैस्ट्रो विभाग के वार्ड में मैं दो-चार दिनों के लिए इन्हें जगह दे सकता हूँ...। "
              डाक्टर बोले जा रहा था पर हम सब को जैसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था । मौत की एक अजीब सी आहट थी जो करीब आ रही थी और हमें भरसक उससे दूर भागना था ।
              बहन-भाई बाहर की ओर भागे , एम्बुलेन्स की व्यवस्था करने...। इस नर्क में अब एक क्षण भी नहीं रुकना...। वह सब बातें कोरी बकवास हैं जिनमें कहा जाता है कि ईश्वर के बाद जीवन रक्षा में डाक्टर का दर्जा है और वह अपने मरीज को अन्तिम दम तक बचाने की कोशिश करता है । छिः , ऐसी बकवास करके लोग भ्रम क्यों फैलाते हैं...? यहाँ तो सब कुछ आँखों देखा हो रहा था...। इलाज शुरू करके ख़त्म करने वाला डाक्टर मुँह छिपा कर इस तरह बैठ गया कि एक बार उसने मुड़ कर देखा भी नहीं कि उसका मरीज , जिसने उस पर विश्वास किया , कैसा है...?


( जारी है )
                      


Sunday, November 7, 2010

दर्द की यह कौन सी ‘ मंडी ’ है ? - ( 2 )

( किस्त - चौदह )



 रात के सन्नाटे का कलेजा भी जैसे चाक-चाक हो गया था । कोई किसी से कुछ बोल नहीं रहा था । एक नन्हीं सी मौत ने उन्हें और भी डरा दिया था । मुझे और मेरी बहन को भी...। अर्धबेहोशी की हालत में भी शायद उसने माँ की चीख और दर्द को महसूस कर लिया था और अब भय के मारे काँपने लगी थी ।
                 इतनी देर से अवाक खड़ी मैं घबरा कर उसके पास दौड़ी और उसे एक मासूम बच्चे की तरह ही पुचकारने लगी , " घबराओ मत...कुछ नहीं हुआ है...। देखो , तुम ठीक हो न...। बस दो-चार दिन की बात और है , फिर हम घर चलेंगे...।"
                मैं ज्यादा देर तक अपने को सँभाल नहीं पाई । काफ़ी देर से आँखों के भीतर जो ढेर सारा पानी जमा हो गया था , वह सहसा ही बाँध तोड़ कर बह निकला । सुनील और इंदर भैया अब भी अवाक थे । सुनील ने बहन का वह हाथ सँभाल रखा था , जिसके ठीक बीचो-बीच वीगो की कीलें ( ? ) जबरिया ठोंक दी गई थी और अब उसमें इतनी असहनीय पीड़ा थी कि बेहोशी में भी बहन कराह रही थी ।
                स्नेह का वीगो वाला हाथ बुरी तरह सूज गया था । उसमें से कई बार खून भी निकला । उस ठिगनी सी हेड नर्स से कहा तो वह गुर्रा कर आगे बढ़ गई , " अब एक ही मरीज है क्या मेरे लिए...? जाकर वहाँ से रुई ले आओ और खून साफ़ कर दो...।"
              " तो फिर तुम लोग किस लिए हो...? " एक और मरीज के वीगो से खून निकला था , वह भड़क गया पर उससे ज्यादा वह ढीठ और दम्भी नर्स , " हम लोग किस लिए हैं , बता दिया तो अभी हवा निकल जाएगी...समझेऽऽऽ...। " फिर क्षणांश में सँभल भी गई , " उधर एक सीरियस मरीज है , उसे देख लूँ , फिर आती हूँ...तब तक तुम रुई से खून साफ़ करो...। "
              " सालीऽऽऽ , हरामज़ादीऽऽऽ...। " एक गाली फुसफुसाहट-सी उभरी और फिर हवा में घुल गई ।
               सामने के बेड पर से एक बूढ़े -से व्यक्ति यह सारा खेल बड़ी देर से देख रहे थे । उन्होंने नर्स को दूर जाते देखा तो धीरे से बोले , " बेटा , बोलने से कुछ नहीं होगा , बल्कि बात और बिगड़ेगी...। चौबीसो घण्टे किसी-न-किसी की होने वाली मौत ने इन्हें पत्थर बना दिया है...। "
               मुझे लगा कि वह आदमी नहीं , बल्कि उनका भय बोल रहा है । मैं मानती हूँ कि ढेर सारे लोगों में वे किसका-किसका दुःख बाँटें , पर अगर वे दुःख बाँट नहीं सकती तो किसी का दुःख बढ़ाने का भी उन्हें कोई हक़ नहीं है...। रही पत्थर होने की बात , तो वह पत्थर उस वक़्त क्यों पिघलता है , जब उनका कोई अपना मरता है ? उसी अस्पताल में कुछ और डाक्टर और नर्सें भी तो हैं , वे पत्थर सरीखा व्यवहार क्यों नहीं करते...?
              इमरजेन्सी वार्ड का मतलब क्या होता है ? आपातस्थिति में आने वाले मरीज ही तो वहाँ आते हैं न...। वे अपनी ज़िन्दगी से खुद ही इस कदर हारे होते हैं कि दूसरे मरीजों की बनिस्पत उन्हें ज्यादा प्यार , सहानुभूति और सहयोग की आवश्यकता होती है , न कि खड़ूस स्वभाव की...। डाक्टरी पेशा बहुत पवित्र समझा जाता है पर कुछ कुसंस्कारी इसे कलंकित कर देते हैं...इस पेशे के प्रति अविश्वास पैदा कर देते हैं...।
              इसी सन्दर्भ में इमरजेन्सी वार्ड की वह काली , भद्दी और क्रूर-सी दिखने वाली नर्स का चेहरा आज भी आँखों के आगे घूम कर उसके प्रति घॄणा जगा रहा है , जिसने नस ढूँढने के नाम पर यहाँ-वहाँ बार-बार सुई कोंच-कोंच कर मेरी बहन को तड़पाया था , जिसके कारण उसके हाथों से तीन-चार बार खून की धार बही और जिसके कारण स्नेह का हाथ इस क़दर सूज गया था कि हल्का-सा स्पर्श भी उसे तड़पा जाता । जितनी बार बहन तड़पती , उतनी ही बार मैं भी तड़प जाती और मन-ही-मन उस नर्स को श्राप देती कि एक दिन वह भी इसी तरह तड़पे...काश !




( जारी है )

Wednesday, October 27, 2010

दर्द की यह कौन सी ‘ मंडी ’ है ? -( 1 )

( किस्त - चौदह )



 हमारा शहर हो या कोई गाँव , निश्चित दिन होता है मंडी लगने का...ज़्यादातर लोग आतुर रहते हैं इस दिन के लिए...। रोज की अपेक्षा उस दिन थोक में सामान खरीदने में काफ़ी सस्ता पड़ता है । सब्ज़ी , अनाज़ , दालें...और कपड़े भी...। कई बार मेरा भी जाना हुआ है । ज़मीन पर तरह-तरह के सामानों की ढेरी , कानफाड़ू शोर , गानों की आवाज़ें...सब कुछ गडमड...। मन को काफ़ी स्थिर करके खरीददारी करनी पड़ती है ।
           और यहाँ...? लगा जैसे फिर किसी मंडी में आ गई हूँ , जहाँ ज़िन्दगी नहीं , मौत के क़दमों की आहट है । जहाँ किसी गीत की धुन नहीं , कराहट का शोर है...। यहाँ कोई सामान नहीं , थोक में दर्द बिकता है और वह दर्द भी ऐसा , जिसका कोई खरीददार नहीं...। हर कोई दर्द को दूर झटक कर मुक्त होना चाहता है , पर दर्द उसे मुक्त नहीं करता...। यहाँ आमदनी कुछ नहीं , पर खर्चा हज़ारों में है...। भीतर खुशी नहीं , दुःख भरा हुआ है...। उफ़ ! यह कौन सी मंडी है दोस्तों , जहाँ दर्द...सिर्फ़ ‘ दर्द ’ बिकता है...। चीख-चीख कर गला दुख जाता है पर कोई खरीदता क्यों नहीं...?
           ढेर सारा दर्द मेरे पास भी था । भाई-बहनों की सहमन , डिप्रेशन में जाती बेटी की चिन्ता और बीमार बहन की जब-तब उभरती चीख...। दर्द का बोझ इतना अधिक हो गया था कि अगर उसे कम करने का जतन न करती तो उसके बोझ तले दब जाती...। यहाँ पी.जी.आई में उसी दर्द को हल्का करने आई थी ।
           दर्द का बाज़ार इमरजेन्सी वार्ड था । हर बेड के ऊपर धीमा चलता हुआ पंखा टँगा था , पर गर्मी इतनी भीषण थी कि उसकी हवा भी बेअसर...। ए.सी की हवा वहीं तक ठहर गई थी जहाँ डाक्टर और नर्स के बैठने की जगह थी...। इमरजेन्सी वार्ड की छत काली...जली हुई सी लग रही थी । शायद कुछ दिन पहले जो आग लगी थी , उसका धुँआ यहीं से उठा था...। ख़ैर , इसे अभी यहीं छोड़ती हूँ...। बात दर्द की हो रही है और दर्द है कि ढेर सारे अनजाने , पर अपने से लगने वाले लोगों के भीतर भरा हुआ है...।
             रात के यही कोई दो-सवा दो बज रहे होंगे । बहन के पास छोटे भाई सुनील और उसी के साथ स्नेह को देखने आए उनके घनिष्ठ पड़ोसी इन्दर भैया को बैठा कर मैं वहीं पलंग के पास गन्दी ज़मीन पर चादर बिछा कर सोने का यत्न कर रही थी , पर आसपास भनभनाते मोटे-मोटे मच्छरों ने हमला करके नींद को काफ़ी दूर भगा दिया था । पूरा बदन लाल चकत्तों से भर गया था , साथ ही एक भय भी...यहाँ आई हूँ बहन की ज़िन्दगी की आस लेकर और कहीं खुद मेरी ही ज़िन्दगी ख़तरे में न पड़ जाए...। इमरजेन्सी वार्ड में तरह-तरह के गम्भीर रोगों से ग्रसित मरीज थे । ये मुटल्ले मच्छर पता नहीं किस-किस का खून पीकर हमारे भीतर इंजेक्ट कर दें...और...। उठ कर बैठी ही थी कि तभी एक मोटा सा चूहा पैरों के ऊपर से गुज़र गया ...नहीं , गुज़रा नहीं , निकल गया...। ( आश्चर्य ! सरकारी अस्पताल में रहकर भी वह स्वस्थ और ज़िन्दा था...। ) 
             चूहे के निकलते ही मैं चिंहुक पड़ी । अभी कुछ अरसा पहले मेरी समधिन यहाँ भरती हुई थी । उनका सबसे छोटा बेटा , मेरा दामाद , उनकी देखभाल के लिए हफ़्तों से यहीं रुका था । कई रात के जागरण के बाद उसे सोना नसीब हुआ , मेरी ही तरह वह भी ज़मीन पर सो रहा था कि तभी किसी जंगली चूहे ने उसे काट खाया । थोड़ी देर बाद ही उसका पूरा बदन सूज गया । उसने तुरन्त ही टिटबैक का इंजेक्शन लगवाया था , पर बावजूद इसके काफ़ी दिनों तक उसकी तबियत खराब रही । वाह ! है न मज़ेदार बात...! इंसान जाए तीमारदार बन कर और लौटे खुद तीमारदार की ज़रूरत वाला बीमार बन कर...। उस घटना को याद करके मैं भी सिहर उठी । सोना तो दूर , वहाँ ज़मीन पर बैठना भी मुनासिब नहीं समझा...।
           धीरे से उठ कर चादर तह कर ही रही थी कि तभी इमरजेन्सी वार्ड के दरवाज़े से दो-तीन आदमी और गँवई सी दिखने वाली एक औरत बहुत तेज़ी से भीतर आए और बहन की बगल वाली खाली पलंग के पास खड़े हो गए । एक के कन्धे पर कोई ढाई-तीन साल का बच्चा मूर्च्छित अवस्था में झूल-सा रहा था । उसने उस ब्च्चे को वहीं पलंग पर लिटा दिया । मैं अवाक...स्थिर सी चादर तह करना भूल कर उसे ही देखने लगी ।
             लाल शर्ट और छोटी सी सफ़ेद निकर में वह नन्हा सा मासूम बच्चा किसी से यह सवाल करने लायक भी नहीं था कि भौतिकवादी इस युग के इस सरकारी अस्पताल के इमरजेन्सी वार्ड में पलंग इतनी जल्दी भर क्यों जाते हैं ? तकनीकीकरण ने क्या ज़िन्दगी के बगीचे को इतना जलविहीन कर दिया है कि नन्हा सा फूल भी खिलने से पहले ही मुरझा जाता है...?
              " डाक्टर साहेब...मेरे बच्चे को बचा लीजिए...।" वार्ड के प्रवेश द्वार पर ही खूबसूरत सी अण्डाकार मेज थी...। मेज के पीछे कुर्सी पर दो-तीन नर्सें और शायद जूनियर डाक्टर गुफ़्तगू में मशगूल थे । आवाज़ से वे चौंके...कान में आला लगाए भीतर आए और बेड के पास खड़े होकर पूछा , " क्या हुआ ?"
              " डाक्टर साहेब , ये खेलते-खेलते गिर पड़ा और बेहोश हो गया...।"
              " कितनी देर से बेहोश है ? "
              " आठ घण्टे से , साहेब...।"
               अब चौंकने की बारी डाक्टर की थी , " आठ घण्टे से बेहोश है और तुम इलाज के लिए अब ला रहे हो...? "
              " नहीं डाक्टर साहेब , हम कानपुर से आ रहे हैं...। बेहोश होने के तुरन्त बाद हम इसे मरियमपुर अस्पताल ले गए थे , पर उन्होंने मधुराज नर्सिंग होम भेज दिया । वहाँ भी उन्होंने भर्ती नहीं किया और यहाँ भेज दिया...। बस्स , हम टैक्सी से भागे-भागे चले आ रहे हैं...। डाक्टर साहबऽऽऽ , मेरे बच्चे को बचा लीजिए...। मेरा पहलौठा है ये...डाक्टर साहेब...।"
               शायद वह उस बच्चे का बाप ही था । उसकी सिसकियाँ वातावरण को और भी ग़मगीन बना रही थी । थोड़ी दूर पर अवाक , मूर्तिवत खड़ी माँ इस आशा में थी कि डाक्टर साहब आ गए हैं , अभी कोई चमत्कार होगा और फिर बेसुध पड़ा उसका लाल ‘ माँ ’ कह कर उसके गले से चिपट जाएगा...।
                डाक्टर ने बच्चे का मुआयना किया और भावहीन चेहरे से बाप की ओर देख कर बोला , " तुम्हारा बच्चा तो मर गया...।"
                सुनते ही मूर्तिवत खड़ी माँ के भीतर हलचल हुई और वह दहाड़ मार कर रोने लगी । हम सब की आँखें भर आई...। डाक्टरों के लिए यह सब कितना सहज हो गया है...। कानपुर में ही कोई डक्टर अगर तुरन्त उस बच्चे का इलाज कर देता तो शायद वह पहलौठा अपनी माँ की झोली खुशियों से भरने के लिए ज़िन्दा होता , पर नहीं...ऐसा नहीं हुआ...। उनके लिए तो ज़िन्दगी और मौत एक ऐसा खेल हो गया है जिसमें कोई पास तो कोई फ़ेल...आखिर एक्ज़ामनर करे भी तो क्या...? पर भाई , यहाँ तो एक नन्ही सी ज़िन्दगी बिना इम्तहान दिए ही फ़ेल हो गई थी । कोई तो ढाँढस बंधाता उसके माता-पिता को...। बड़ी आशा लेकर आए थे , माँ आँचल में निराशा बाँध कर चली गई...। छिः , ऐसी डाक्टरी को धिक्कार है , जो किसी का ग़म न बाँट सके...उसे धीरज न बँधा सके...। डाक्टर व नर्स का भावहीन चेहरा मुझे इस पवित्र पेशे के प्रति वितृष्णा से भर गया । यद्यपि मैं जानती हूँ कि समाज में हर कोई ऐसा नहीं , पर उस क्षण जो देखा , उसे ही महसूस किया तो क्या ग़लत किया...?
   

( जारी है )


Saturday, October 23, 2010

और इन्तज़ार ख़त्म हुआ पर...( 4 )

( किस्त - तेरह )



                    उन लोगों ने बड़ा अहसान-सा किया जो जनरल वार्ड में एक बेड दे दिया , पर अब एक और इन्तज़ार ने अपना फन काढ़ लिया था...डाक्टर के आने का...।
                    स्नेह की पलंग के ठीक सामने बनारस ( वाराणसी ) का कोई बन्दा था...बेहद बिन्दास और हँसमुख...। उसे वहाँ आए काफ़ी दिन हो गए थे । पता नहीं किस मर्ज़ का इलाज चल रहा था , पर सामने पेशाब की थैली के पास पट्टी बँधी थी...जिस पर हल्का सा खून भी था...। अगल-बगल दो बैग लटके...एक में पेशाब तो दूसरे में शायद गन्दा खून...। दर्द के बावजूद वह हँस रहा था...ठेठ बनारसी बोली बोल कर दूसरों को हँसा रहा था...। उसको हँसते देख कर पल भर के लिए अपनी पीड़ा भूल सी गई...। दो दिन बाद -" भ‍इयाऽऽऽ , चला-चली का बखत ( वक़्त ) है..." कहता छुट्टी पाकर घर चला गया , फिर आने के लिए...। वह दुबारा लौटा कि नहीं , नहीं जानती...। पर उसका वह हँसता , दुबला चेहरा आज भी याद है ।
                    दुःख के कँटीले रास्ते पर सुख की तलाश...। अपनी तलाश में उसने उस अनजान माँ को भी शामिल कर लिया था जो अपनी  लम्बी बीमारी के कारण पी.जी.आई में बसेरा ही बना बैठी थी...। बेटा व पति पास थे फिर भी वह अपनी अनिश्चित ज़िन्दगी को लेकर हमेशा रोती रहती थी । उसे भी जॉन्डिस ( पीलिया ) था...लीवर में कोई और भी खराबी थी...और भी जाने क्या-क्या...। दो महीने का लम्बा वक़्त उस जगह गुज़रने को था , पर फिर भी उसके सामने आशा की एक नन्ही सी किरन भी नहीं थी...।
                   हर कोई एक-दूसरे की छिटपुट जानकारी लेता , सान्त्वना देता और फिर एक बार अपने की पीड़ा में गुम हो जाता । मैं भी अलग नहीं थी उनसे...। बहन की पीड़ा के आगे कुछ भी सुझाई नहीं दे रहा था...। हमें वार्ड में आए करीब दो घण्टे बीत चुके थे पर कोई आया क्यों नहीं...?
                   काफ़ी देर बाद एक बेहद काली - नाटी सी नर्स आराम से चलती हुई आई...। उसके साथ एक जूनियर डाक्टर...डाक्टर के साथ एक और आदमी...। डाक्टर ने बहन की फ़ाइल पर एक उचटती सी निगाह डाली , उन्हें कुछ समझाया और फिर सधे कदमों से वापस चला गया ।
                  पता नहीं किस जनम के पापों की सज़ा भुगत रही थी स्नेह...। दूसरों को अपनी जान में कभी दुःख नहीं दिया , पर ईश्वर उसे दुःख दे रहा था...तिस पर नीचे , धरती के कसाई...। स्नेह के हाथों की नस काफ़ी पतली थी शायद...जल्दी दिखाई नहीं दे रही थी...। उसे वीगो लगना था ग्लूकोज़ के लिए...। उन दोनो ने स्नेह का वही हाथ पकड़ कर कस कर ठोंकना शुरू किया , जिस में महीने भर पहले ही फ़्रैक्चर हुआ था । वह दर्द से एकदम चीख उठी...। मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ , " सुनिएऽऽऽ, इस हाथ में फ़्रैक्चर है , हड्डी अभी ठीक से जुड़ी नहीं है...। आप दूसरे हाथ में वीगो लगा दीजिए...।"
                  सहसा वह काला आदमी नाग की तरह फुंफकारा , " एई मैडमऽऽऽ , आप किनारे हटिए और हमें अपना काम करने दीजिए...।"
                " पर..." होंठो को भींच कर बहन ने मुझे आँखों से इशारा किया , चुप रहने का...। मैं कसमसा कर रह गई...। जी चाहा उस आदमी की कलाई को मरोड़ कर उसकी हड्डी तोड़ दूँ और फिर कस कर मरोड़ कर कहूँ , " क्यों , अब कैसा लग रहा ? "
                " दीदीऽऽऽ , यहाँ ऐसा कुछ मत करना जिससे इन लोगों को मेरी दुर्दशा करने का बहाना मिल जाए...।"
                  स्नेह की डरी हुई आवाज़ मुझे भीतर तक सिहरा गई थी...। कितनी-कितनी बार यही बात दोहरा कर वह मेरी मिन्नतें करती रही थी और मैं हर बार नए सिरे से पस्त हो जाती...। अन्याय को न सहने वाली मैं कितनी लाचार हो गई थी...।
                  पहली बार मुझे अनुभव हुआ कि जेल और अस्पताल ( खास कर सरकारी ) में कुछ खास अन्तर नहीं होता । एक में कसूरवार यातना झेलता है तो दूसरे में बेक़सूर...। जेल में नम्बर के बैरक हैं और शक्ति के अनुसार सुविधा , तो यहाँ भी शक्ति और वैभव का गठजोड़ है...। इतनी समानता...? उफ़...! यातना की इंतहा भी...!




( जारी है )

और इन्तज़ार ख़त्म हुआ पर... ( 3 )

( किस्त - बारह )



पी.जी.आई के लम्बे-चौड़े रास्ते पर इधर से उधर...फिर उधर से इधर...न जाने कितने घण्टों का सफ़र तय किया गुड़िया और अंकुर ने , उसका कोई हिसाब नहीं , पर उनके पैर और सब्र पूरी तरह से जवाब देते , इससे पहले ही एक डाक्टर ने बड़ी दया भरी निगाह से ताकते हुए कहा , " चलिएऽऽऽ , आप इतना परेशान हो रहे हैं तो किसी तरह गैस्ट्रो विभाग के जनरल वार्ड में एक बेड दे देता हूँ...। आप मरीज को ले आइए...।"
                      " पर डाक्टर...प्राइवेट वार्ड का क्या हुआ...?"
                      " आप प्राइवेट वार्ड तो भूल ही जाइए...। अरे यहाँ तो एक बेड के लिए भी मारामारी है और आप कमरे की बात कर रही हैं...। खाली हो जाएगा तो मैं खुद ही दे दूँगा...। आपको परेशान होने की ज़रूरत नहीं...।"
                       काला नाग ‘ इन्तज़ार ’ था , पर फुंफकार रहा था - वहाँ का स्टाफ़...। ज़िन्दगी में पहली बार शर्मिन्दगी , बेचारगी और मजबूरी का एक अजीब सा अहसास हुआ और लगा मानो हम जनरल वार्ड में नहीं , बल्कि किसी बड़े शहर के फुटपाथ पर पड़े हैं...एकदम गरीब और लाचार से दिखते हुए...। जिसका मन हुआ , आकर एक ठोकर मार कर चला गया...। शौचालय का नर्क यहाँ भी था । नर्स से लेकर झाड़ू लगाने वाली तक , सभी इस तरह डपट कर बोल रही थी जैसे वे सब बड़ी अधिकारी हों और हम सब उनके मातहत...।
                      आसपास कुल छः या सात बेड थे । किसी पर कोई ग्रामीण बैंक का मैनेजर भर्ती था तो किसी पर कोई बिजनेसमैन...। सबकी अपनी-अपनी प्रतिष्ठा था...। इन्हीं के बीच एक-दो सामान्य जन भी थे , पर हाँक सबके साथ एक सी थी...। कुछ इस तरह जैसे समाजवाद पूरी तरह इसी अस्पताल में उतर आया हो...। यहाँ न कोई छोटा , न कोई बड़ा...जूता एक बराबर...। इलाज कराना है तो पहला सफ़ल मन्त्र - सिर पर जूता खाओ , पर बोलना मत...बोले तो ख़ैर नहीं...।
                      मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रहा था । बीमार बहन के साथ रह कर खुद भी बीमार सी हो गई थी । शरीर की ताकत निचुड़ गई थी पर भीतर की आवाज़ अब भी दबंग थी ।
                      बहन ( स्नेह ) डर गई...मेरी दबंगता से वह हमेशा डरती रही है...। उस दिन तो और भी डर गई , " दीदीऽऽऽ , कुछ बोलो मत...। तुम जानती नहीं , ये लोग अगर चिढ़ गए तो इलाज के बहाने ये सब मेरी दुर्दशा कर डालेंगे...। हम गन्दे बाथरूम में चले जाएँगे...तुम परेशान मत हो...।"
                     " नहीं ,मैं कुछ नहीं कहूँगी...पर किसी डाक्टर को तो आना चाहिए न...।" मैने उसे धीरज तो बँधा दिया पर भीतर से उबल रही थी । बाथरूम की सफ़ाई को लेकर जिस तरह से एक नर्स फुफकारी थी , कोई और जगह होती तो या तो उसके गाल लाल कर देती या घसीट कर उस नर्क में उसे ही धकेल देती , पर आह ! मेरी मजबूरी...! ज़िन्दगी में इतनी लाचार कभी नहीं हुई । उस वक़्त भी नहीं जब सिर्फ़ एक बेटी होने की वजह से मेरे तथाकथित ससुर अपशब्दों की बौछार करते किसी कटखने जीव की तरह काट खाने को दौड़ते थे...और उस समय भी नहीं जब पति नाम का जीव अपने चारित्रिक पतन को छिपाने के लिए त्रिया-च्रित्तर का रोल निभाता सारा दोष मुझपर मढ़ देता...। ज़िन्दगी मेरे लिए ईश्वर की दी हुई एक ऐसी सौगात थी जिसे हर हाल में मैं सम्हाल कर रखती थी । दूसरों के दिए ग़म को मैं झटक देती और खुद के लिए खुशी को जन्म देती । यही मेरी ताकत थी और इसी ताकत ने मुझे दबंग बनाया । पर मेरी बहन...? दुःख मैं सहती , हार वो जाती...। पर आज तो वह पूरी तरह से हारी हुई थी क्योंकि वह दुःख मेरा नहीं , पूरी तौर से उसका था और उसे सहना , न सहना उसका काम था...। शरीर से तो वह सह रही थी पर भीतर से हारती हुई दिन-ब-दिन चटक रही थी...सूखी हुई धरती की तरह...।
                     पर मेरी बहन ही क्यों ? रात के निपट अंधेरे में सबके अपने आँसू थे...मच्छरों की कटखनी चुभन थी और थी झींगुरों की भद्दी आवाज़...मरिजों की कराहट...ठोस ज़मीन से उपजी तन की अकड़ाहट...घोर निराशा...। क्या होगा ? स्नेह ठीक होगी या नहीं ? कानपुर के डाक्टरों ने तो जवाब दे दिया था , अगर यहाँ के डाक्टरों ने भी कुछ कह दिया तो...? आँखों में ठहरे आँसू के साथ यह सवाल भी ठहर गया था , पर इस ठहराव के बीच कोई नन्हा सा कंकड़ फेंक कर पानी में हल्की सी हलचल पैदा कर देता , " देखिएऽऽऽ , घबराइए नहीं...यहाँ काफ़ी बड़े और अनुभवी डाक्टर हैं...। जिसका कहीं इलाज नहीं , उसका यहाँ है न...। आप मेरा यक़ीन कीजिए , आपकी बहन बहुत जल्दी स्वस्थ होकर घर जाएँगी...।"
                    सान्त्वना मन का दर्द कुछ हद तक कम कर देती है पर तन की पीड़ा तो डाक्टर ही कम कर सकता है , दवा देकर...। स्नेह की पीठ में भयानक दर्द था । दर्द निवारक क्रीम की पूरी ट्यूब खाली हो जाती पूरे दिन में । थोड़ी देर दर्द कम रहता पर अगले ही क्षण कराहट...। मैं सारे समय खड़े रह कर या तो क्रीम मलती , या गर्म पानी की थैली देती...। छोटे से स्टूल पर बैठे-बैठे कमर टूट सी गई थी । खड़ी रहती तो टाँगें दुखने लगती...। बहन की पीड़ा के आगे अपना कष्ट कुछ भी नहीं था पर बावजूद इसके , एक अजीब सी बेचैनी थी जो जीने नहीं दे रही थी...। काश ! मेरे हाथ में कुछ होता...। बहन का ही नहीं , न जाने कितनों का कष्ट दूर कर देती...। जादू की छड़ी...कोई मन्त्र या फिर...?



( जारी है  )


Thursday, October 21, 2010

और इन्तज़ार ख़त्म हुआ पर...( 2 )

( किस्त - ग्यारह )



मन में एक भ्रम था कि शायद नर्क जनरल वार्ड तक ही सीमित है...। आगे प्राइवेट वार्ड है , उसमें साफ़-सुथरा शौचालय , ए.सी की ठण्डी हवा , साफ़-सुथरा बिस्तर और सही देखभाल...। वहाँ जाकर हम नर्क की ओर देखेंगे भी नहीं...। किसी भी तरह पैसे का जुगाड़ करके भीषण दुःख के बीच सुख की एक नन्हीं सी लहर भी स्पर्श कर ली तो काफ़ी है , पर वाह रे अस्पताल...! वहाँ प्राइवेट वार्ड की कौन कहे , जनरल वार्ड में भी कोई बेड नहीं मिला...। प्राइवेट वार्ड के लिए रुपया जमा करने पर भी सिर्फ़ आश्वासन , " देखिएऽऽऽ , आज तो कहीं कोई बेड खाली नहीं है...। आप डाक्टर को दिखा लीजिए...वे रिफ़र करेंगे तो भर्ती तो कर लेंगे , पर फिर भी बेड के लिए आप को इन्तज़ार करना होगा...।"
                       थोड़ी देर बाद डाक्टर के कमरे के बाहर पस्त पड़े पसीने से बदबुआते मरीजों और तीमारदारों के साथ हम भी थे...। गुड़िया और सुनील कभी बेड का इन्तज़ाम करने बाहर भागते , डाक्टरों की मिन्नतें करते , तो कभी वापस फिर उस लम्बी लाइन की कतार में आ खड़े होते , जहाँ से उन्हें डाक्टर के पास जाना था...। स्नेह अपनी बीमारी की गम्भीरता का अहसास करती आँखें बन्द किए पड़ी थी । चारो तरफ़ से सवालों की बौछार लगी थी . " क्यों , क्या हुआ है इन्हें...?"
                       छोटी सी कहानी की तरह चन्द लाइनें दोहरा देती पर अब ऊब सी होने लगी थी...दूसरों से क्या मतलब...? वे अपने मरीज को क्यों नहीं देखते...? क्यों बार-बार मुड़ कर बेचारगी भरी आँखों से मेरी बहन की ओर इस तरह देखते हैं जैसे उससे कोई बहुत बड़ा अपराध हो गया हो और अब बस्स...सज़ा सुनाए जाने भर की देर है...।
                       सज़ा में जैसे देर थी , पर इसे ख़त्म तो होना ही था...। करीब चार या पाँच बजे डाक्टर के यहाँ से खाली हुए तो फिर हॉल में आकर बैठ गए । अब तन की पूरी शक्ति निचुड़ चुकी थी...। हम सब भी शक्ल से बेहद कमज़ोर और बीमार से दिख रहे थे । थोड़ी देर की मशक्कत के बाद पास के एक होटल में कमरा मिला...। वहाँ जाकर राहत की साँस तो ली पर वह राहत स्थायी नहीं थी । मरीज के साथ कभी भी , कुछ भी हो सकता था । ईश्वर पर विश्वास अभी ज़र्रा भर बाकी था , सो उन्हीं के भरोसे रात काटी , पर सुबह होते ही...।




  ( जारी है )        

Tuesday, October 19, 2010

और इन्तज़ार ख़त्म हुआ पर...( 1 )

( किस्त - दस )



सुबह के सात बजे के खड़े-खड़े आखिर बारह बजे रजिस्ट्रेशन की बारी आ ही गई...। लगा , इंतज़ार की घड़ी खत्म हो गई पर उस ख़त्म होने के बीच में कई चीजें टूटी-बिखरी...। कईयों की आस टूट गई तो कई हताशा में खुद बिखर गए...। हर कोई जल्दी-से-जल्दी निजात पाना चाहता था वहाँ से...उस लम्बी जानलेवा लाइन से...और इसी आशा में कोई कभी लाइन तोड़ कर आगे पहुँच जाता तो कभी दूसरी , बन्द खिड़की की ओर भागता  , यह सुन कर कि वह भी भीड़ को देखते हुए बस खोली ही जाने वाली है । पर उसकी आशा निराशा में तब बदल जाती , जब गार्ड के साथ-साथ आगे खड़े लोग भी उसे अपशब्द कहते हुए पीछे धकिया देते...। धक्का-मुक्की के बीच इन्सानों का रेला चेन टूटे डिब्बों की तरह इधर-उधर डोलता...फिर स्थिर होता...।
                         शुक्र था कि भयंकर उमस , धक्का-मुक्की और लम्बे इन्तज़ार के कारण पैरों में बढ़ते दर्द के बावजूद अंकुर ने अपनी जगह नहीं बदली और कछुए की चाल से आगे बढ़ती लाइन के साथ ही आगे बढ़ा ।
                         रजिस्ट्रेशन होने के बाद हमने राहत की साँस ली , पर यह क्या ? अंकुर और गुड़िया तो भीड़ के साथ ही अन्दर की ओर भागे । वहाँ डाक्टर को दिखाने के लिए नम्बर लेना था , फिर मरीज को लेकर जाना । एक और राक्षसी इन्तज़ार...? हताशा के काले बादल हमारी आँखों में उमड़-घुमड़ रहे थे पर बरस नहीं पा रहे थे...।
                        पी.जी.आई पहली बार आए थे इसी लिए पता नहीं था कि घर से निकलते वक़्त ही हमने अनजाने ही एक ऐसे अंधेरे रास्ते पर अपने कदम डाल दिए हैं जो आगे चल कर संकरा...और संकरा होता चला जाएगा...। कभी फुरसत मिले तो दूसरे से मिलने के बहाने ही सही , ऐसे संकरे रास्ते से गुज़रिएगा जरूर...जिसके आजू-बाजू गन्दगी से बजबजाती नालियाँ हों , कुत्ते...भेड़-बकरियाँ...नंग-धड़ंग बच्चे छुट्टे घूम रहे हों और बीच में गढ्ढों से भरी ऊबड़-खाबड़ सड़क...एक-दूसरे से टकराते-धकियाते वाहन और आसपास गूँजती माँ-बहन की गालियाँ...। शायद यह गुज़रना आज के असंवेदनशील होते जा रहे मन को हल्के से दर्द का अहसास कराए...और साथ ही सोचने पर मजबूर भी करे कि एक तरफ़ दुनिया बेहद रंगीन और रोशनी से भरी हुई है , पर दूसरी तरफ़ एक ऐसा गहरा अंधेरा है जिसे देख कर रुह भी काँप जाती है...। 
                       कानपुर के हैलट और उर्सला अस्पताल का नर्क अपनी आँखों से देख कर मैं सिहर गई थी और उस सिहरन से बचने के लिए ही समाज-सेवा का भूत अपने सिर से उतार लिया था , पर उस वक़्त , जब मेरी अपनी बहन को मेरी सेवा की जरूरत थी , उससे कैसे दामन छुड़ाती...? नर्क इस कदर मेरे पीछे पड़ गया था कि उसने भागने का कोई रास्ता ही नहीं छोड़ा था...।
                        


( जारी है )
          

रोइए...कि आप नर्क में हैं

( किस्त - नौ )


लखनऊ के पी.जी.आई में कहाँ-कहाँ से तो लोग आते हैं...बक्सर , गोण्डा , गोरखपुर , लखीमपुर , देवरिया और बिल्कुल पास के शहर कानपुर से भी...। कुछ ऐसे गाँव या शहर जहाँ या तो छोटे-मोटे डाक्टर हैं या फिर मुन्नाभाई छाप...। हार कर उनके पास ज़िन्दगी की आस का एक आखिरी सिरा बचता है और वह है सरकारी अस्पताल...। प्राइवेट अस्पताल के लिए सबकी औकात नहीं होती...वहाँ ज्यादा तोड़फोड़ की भी संभावना नहीं होती...। रही सरकारी अस्पताल की बात...मरीज के मर जाने पर जी भर कर तोड़-फोड़ कीजिए...डाक्टर को गाली दीजिए और फिर खुद भी जी भर कर गाली और लात-घूँसे खाइए...अपने बाप का क्या जाता है...। सरकारी है सब...सरकार जाने...। मरीज तो मर गया न...दो-चार घण्टे बवाल हुआ , फिर शान्त...। घर जाइए , मातम मनाइए...। डाक्टर को कृपया बख़्श दीजिए...। एक आपका ही तो प्रिय नहीं यहाँ मरने के लिए...अभी औरों को भी तो मरना है जनाब...। थोड़ा समझदारी से काम लीजिए ...। डेरा जमाया नर्क में और सुविधाएँ चाहते हैं स्वर्ग की ?
                 हाँ , यह सरकारी अस्पताल है भैयाऽऽऽ , सारी सुविधा है...जहाँ चाहो , हग-मूत लो...चाहो , थूक लो...जहाँ चाहो , डेरा जमा लो...कोई कुछ नहीं कहेगा , और अगर कहे भी तो क्या ? इतनी बेहयाई तो इलाज के वक़्त हर कोई साथ लाता ही है...।
                 ख़ैर , भीतर नर्क में चार-पाँच शौचालय बने थे...भीषण गन्दगी से अटे पड़े...। पीछे प्याला था , नल था चूता हुआ      पर डिब्बा नहीं था । पूरी आज़ादी थी...। कोई पायदान पर गन्दगी कर गया था तो कोई उसके आगे...। शौचालय अच्छा-खासा खेत सरीखा था...जहाँ चाहो बैठ लो...। मुझे लगा कि देश कि देश की एक-तिहाई आबादी नर्क में जीने की आदी है और जो नहीं हैं उन्हें सरकार बना रही है...पर नर्क के पहरेदार...? उनकी भी तो कोई जिम्मेदारी बनती है । माना कि नर्क मरीज और उनके तीमारदार बनाते हैं पर उनसे आप मोटी फीस भी तो वसूलते हैं किसी न किसी बहाने...। तो क्या उस फीस का एक अंश उस नर्क की सफ़ाई में नहीं खर्च किया जा सकता ? बाहर बार-बार चकाचक पोंछा मार कर आनेवालों को आकर्षित करने की बजाए यदि दस-पन्द्रह बार शौचालय की सफ़ाई की जाए , वहाँ ठीक से पानी-रोशनी की व्यवस्था की जाए तो इसमें हर्ज ही क्या है ? हमारे शॉपिंग मॉल में भी तो हर तरह की , अच्छे-बुरों की भीड़ उमड़ती है पर उनके शौचालय में ज़रा भी गन्दगी नहीं...। शॉपिंग मॉल्स की तरह अस्पतालों को भी भव्य आकार देकर भीड़ तो जुटा ली पर उससे उत्पन्न गन्दगी को दूर करने का रास्ता अपनाना कठिन लगा ?
                 यहाँ पैर रखने की जगह नहीं थी पर मरता क्या न करता ? एक छोटा सा कोना देख कर मैं और स्नेह दोनो ही फ़ारिग हुए , पानी कहीं नहीं था अतः दूसरों की तरह हम भी अपना काम कर बाहर आ गए पर उस एक क्षण में गन्दगी में खड़े जैसे सदियाँ बीत गई...छिः...।
                 बेहद लम्बे-चौड़े हॉल के एक किनारे रखे सोफ़े पर गुड़िया ने एक कोना किसी तरह छेंक रखा था । उस पर स्नेह को बैठा कर बड़ी बेचारगी से अंकुर की ओर देखा...। वह काफ़ी देर से खड़े-खड़े जैसे पस्त सा हो गया था । सभी के माथे से पसीने की धार बह रही थी । ऊपर छत पर टँगा पंखा भीड़ के आगे हार गया था ।
                 अंकुर हार मानने को तैयार नहीं था । वह उन लोगों में से नहीं था जो अच्छे वक़्त में प्यार का डंका बजाते गले लग जाते हैं , पर दुःख के समय खाली हाथ होने के भय से साथ छोड़ देते हैं । स्नेह ने अपनी जमा-पूँजी में से कफ़ी हिस्सा अपनी सबसे बड़ी बहन के चारों बच्चों पर भी क़ुर्बान किया था पर अपनी नानी की मौत के बाद उन्होंने ननिहाल की ओर मुड़ कर भी नहीं देखा...। उन्होंने तो यह भी नहीं सोचा कि जिन मौसियों माया और स्नेह ने रात-रात भर जाग कर उनके लिए स्वेटर बुने , जिन्होंने उनकी हथेली पर शगुन के नाम पर ढेरों रुपया रखा और जिन्होंने उनकी शादी में रात-दिन नहीं देखा , एक बार...बस एक बार उनकी ओर मुड़ कर देखते तो कि नानी के न रहने पर वह अकेली तो नहीं ?
                 पर अंकुर उनकी तरह स्वार्थी नहीं...। जिस बुआ ने उसे पाल-पोस कर इतना बड़ा किया , उनके लिए यह मेहनत कुछ भी नहीं...। उसके खून की एक-एक बूँद भी अगर उनके काम आई तो वह देगा । रजिस्ट्रेशन की तो औक़ात ही क्या ? कितनी भी परेशानी हो , रजिस्ट्रेशन तो वह करा कर ही दम लेगा...( और बाद में खून की जरूरत पड़ने पर अंकुर के अलावा छोटे भाइयों सुनील और विवेक  ने अपना खून दिया भी...। )
                
                  
( जारी है )

Wednesday, October 13, 2010

रोइए...कि आप नर्क में हैं

( किस्त- आठ )


तीखी धूप में हम सब का पूरा बदन जैसे जल रहा था और हम सब बेहद थके हुए थे , पर बावजूद इसके कोई किसी को दोष नहीं दे रहा था । गुड़िया और भतीजा अंकुर चुपचाप रजिस्ट्रेशन खिड़की की ओर चले गए । करीब सत्तर-अस्सी लोगों के बाद कहीं जाकर अंकुर को खड़े होने की जगह मिली । माथे का पसीना पोंछते वह चुपचाप लम्बी लाइन के पीछे खड़ा हो गया और बेचैनी से अपनी बारी का इंतज़ार करने लगा । स्नेह को बीच-बीच में दो-चार घूँट पानी के पिला देते...। वह पीती , फिर आँखें बन्द कर लेती कुछ इस तरह जैसे अनन्त आकाश का जायजा ले रही हो बन्द आँखों से...।
                   छोटे भाई राजू की आँखें भरी हुई थी । वह स्नेह का पैर सहला रहा था । मेरे भीतर भी जैसे रुलाई फूट रही थी । कैसे होगा इलाज...? अपने ही शहर में इलाज हो जा्ता तो ज़्यादा अच्छा था...इस कष्टप्रद प्रक्रिया से गुज़रना तो न पड़ता...। अपने शहर में क्या कोई भी ऐसा योग्य डाक्टर नहीं जो इस तरह के गम्भीर रोगियों के इलाज करने का जिम्मा ले सके ? बड़े-बड़े गैस्ट्रोलॉजिस्ट का नाम तो सुना है , फिर क्यों हमारे डाक्टर ने यहाँ भेजा...? 
                   ये कई सवाल थे जो वक़्त के साथ आगे सरक तो रहे थे पर बीच में ठहर भी जाते...ठीक उस लाइन की तरह जो रजिस्ट्रेशन खिड़की से लेकर बाहर सड़क पर जाकर ठहर सी गई थी...न आगे खिसक रही थी और न पीछे...।
                   समय सात बजे का पर खिड़की खुली बड़े आराम से आठ बजे...। उसके खुलते ही धक्का-मुक्की...रेलमपेल...। हर कोई आगे जाना चाह रहा था । जितनी जल्दी हो सके , रजिस्ट्रेशन करवा कर भर्ती कर दें । देर हो गई तो दूर ज़मीन पर , टैक्सी की खौलती चादर के नीचे या फिर खुले आसमान तले गर्म , सूखी घास पर लेटा मरीज कहीं सरक न जाए...। पर उन्हें क्या पता था कि यहाँ मरीज का सरकना या न सरकना उतना महत्वपूर्ण नहीं था , जितना महत्वपूर्ण था एक और लम्बी , उबाऊ , दर्दभरी प्रक्रिया से गुज़रना...और यह कष्टप्रद प्रक्रिया थी , डाक्टर को दिखाना...भर्ती होने के लिए उनकी रज़ामन्दी लेना...। हज़ारों की संख्या में मरीज...डाक्टर करे भी तो क्या करे...? उनके लिए अपनी खुशियाँ तो तबाह नहीं कर सकते न...। वे आराम से आएँगे...उसके बाद नम्बर पुकारा जाएगा...एक-एक कर आराम से आइए...एक-दूसरे को धक्का मत दीजिए । आपका प्रिय इतना कमज़ोर नहीं कि बिना इलाज के मर जाए...। अरे , अभी तो उसका लम्बा इलाज होगा , फिर मरेगा न...।
                   बगल में पसीने से बदबुआता एक ठिगना सा आदमी खड़ा बड़बड़ा रहा था , " कल से दौड़ रहे हैं रजिस्ट्रेशन के लिए...साला नम्बर आने से पहले ही खिड़की बन्द हो गई...। यहाँ तो..." एक भद्दी सी गाली हवा में तैरी कि तभी...
                   " दीदी...बाथरूम जाना है...।" टैक्सी में काफ़ी देर से लेटी स्नेह सहारा लेकर धीरे से उठ बैठी थी । भीतर हॉल में बैठने की जगह तलाशने गुड़िया और सुनील गए थे । उन्हें फोन किया तो उसने कहा ," दीदी , भीतर आ जाओ...यहाँ थोड़ी सी जगह मिल गई है । अगर हम बाहर आएँगे तो यह भी छिन जाएगी और हाँ , यहाँ सामने ही बाथरूम भी है...।"
                     मन दुविधा में पड़ गया । स्नेह का अशक्त शरीर और इतना लम्बा रास्ता...। क्या वह पैदल चलकर मीलों लम्बाई का अहसास कराने वाले रास्ते को पार कर पाएगी ? भीतर सैकड़ों की भीड़ में गिनती की कुर्सियों के लिए मारामारी थी , फिर...?
                     फिर क्या...बहन के तो अभी हाथ-पैर सलामत थे । जो एकदम टूटे-फूटे थे , वे भी अपनी टूट-फूट के लिए लिखा-पढ़ी करके कुर्सियाँ ले रहे थे और हम...।
                     बहन को दोनो तरफ़ से पकड़ कर चल तो सकते थे...हमने वह किया भी...। हाँफ़ते-काँपते किसी तरह बाथरूम पहुँच ही गए और फिर भीतर...? नर्क की ज़मीन पर हमने पूरी तरह पाँव रख दिया था...। छिः , इतनी गन्दगी...? इतनी गन्दगी तो शायद असली नर्क में भी नहीं होगी पर यह गन्दगी करता कौन है...?
                     मेरे मुँह बिचकाने पर प्याले के बाहर धार छोड़ता शख़्स बड़ी बुद्धिमत्ता से बोला ," हम ही न...हम क्यों नहीं बाथरूम को साफ़-सुथरा रखते...? क्यों नहीं प्याले को ठीक से इस्तेमाल करते...? क्यों नहीं ठीक से पानी डालते...?" प्रलाप-सा करता , भीतर गन्दगी छोड़ कर बिना पानी डाले वह बाहर चला गया । जी चाहा अभी दौड़ कर उसे कॉलर समेत भीतर घसीट लाऊँ और उसके थुलथुले गाल पर एक जोरदार झापड़ रसीद कर कहूँ , " हरामज़ादेऽऽऽ , लेक्चर देना बहुत आता है , पर करना कुछ नहीं...। तेरे जैसे जानवर ही यहाँ गन्दगी फैलाते हैं और भोगते हैं हम जैसे साफ़-सुथरे लोग...।" बाद में किसी ने बताया कि वह वहीं का आदमी था...सफ़ाई कर्मचारी या और कोई...???
                    सरकारी अस्पताल में अगर डाक्टर , नर्स या अन्य कर्मचारी लापरवाह हो जाते हैं तो क्या मरीज और उसके तीमारदार भी इतने लापरवाह हो जाते हैं कि बेशर्मी की हद पार कर इधर-उधर गन्दगी फैलाते हैं और फिर उसी गन्दगी में पाँव धर कर बाहर जाते हैं...। ऐसा करते समय क्या उन्हें ज़रा भी घिन नहीं आती ?



( जारी है )

Monday, October 11, 2010

रोइए...कि आप नर्क में हैं

( किस्त - सात )


मौत से हाथ मिला लेने वाले इंसान और सरकारी अस्पताल का रिश्ता बेहद अजीब और क़रीबी है...। अजीब इसलिए क्योंकि कोई भी वहाँ ख़ुशी से नहीं जाना चाहता ...एक विचित्र सी आवाज़ होती है जो चुपके से तीमारदारों से कहती है कि चलो , नर्क का द्वार खुद अपने हाथों से अपने प्रिय के लिए खोलो...। यह आवाज़ का ही सम्मोहन होता है कि सबका दिमाग़ काम करना बन्द कर देता है । ऊहापोह के फिसलन भरे रास्ते पर वह बस फिसलता ही चला जाता है...और जब होश आता है तो वह अपने को एक ऐसी खाई में पाता है जहाँ चारो तरफ़ बस अंधकार ही अंधकार है । सच , अजीब रिश्ते की यह अजीब दास्तान है । अब बात है , क़रीबी रिश्ते की...तो वह् इस लिए कि चारो तरफ़ से द्वार बंद हो जाने पर एक यही अस्पताल ऐसा होता है , जो क़रीबी रिश्तेदार की तरह जल्दी स्वीकार तो लेता है , पर ज़्यादा दिन ठहरने पर ऊब भी जाता है । मेहमान कम ही दिन का अच्छा लगता है...जिसके ज़्यादा दिन ठहरने की उम्मीद हो , उसकी ओर ध्यान देना बन्द कर दो , वह परेशान हो कर खुद ही चला जाएगा ।
             पी.जी.आई अपने क़रीबियों से बड़ा अच्छा रिश्ता निभाता है...किसी को पता भी नहीं चलता...। कुछ दिन और ठहर जाने के भय से जब यह क़रीबी रिश्तेदार पर ध्यान देना बन्द कर देता है तब हारकर मेहमान चला ही जाता है ।
             लगभग आधे शहर को अपने भीतर समाए यह अस्पताल लखनऊ में ही नहीं बल्कि बाहर भी अपने नाम को ले जाकर एक अजब किरदार निभा  रहा है ।  एक ही प्लेटफ़ार्म पर न जाने कितनी गाड़ियाँ रुकती हैं । टिकट ( रजिस्ट्रेशन) खिड़की खुलने का समय सात से बारह बजे तक...पर भीड़ और देरी से बचने के लिए लोग सुबह पाँच बजे से ही डट जाते हैं । मरीज लम्बे-चौड़े , विशालकाय हॉल में रखे दो-चार पलंगनुमा सोफ़े पर पस्त पड़ जाते हैं , घर का कोई सदस्य उनके पास , तो कोई लाइन में धक्का खाता हुआ...। चारो तरफ़ भीड़ ही भीड़...झाँव-झाँव...एक अजीब सी उथल-पुथल...। किसी बड़े शहर का बड़ा स्टेशन...?
             हम लोगों का कभी इससे वास्ता नहीं पड़ा था । यद्यपि दूर-दराज के कई रिश्तेदार वहाँ जाकर वापस अपने घर आए थे और कुछ समय बाद लम्बे सफ़र पर निकल गए , पर किसी ने कभी गहराई से वहाँ की स्थिति को नापा ही नहीं...नापा तो अपनी कमी को...अन्तिम मोड़ पर हैं , डाक्टर कोई भगवान तो नहीं...।
             दोस्तों , मानती हूँ कि डाक्टर भगवान नहीं , पर एक अच्छे इंसान तो हो सकते हैं न ? ख़ैर छोड़िए...हमारे समाज की अच्छाई-बुराई इस पेशे में भी है , पर रंज तब होता है जब आप इसके बुरे पहलू में फँस जाते हैं ।
             वहाँ अच्छे इंसान भी बसते हैं पर उनसे वास्ता पड़ता तो इन पन्नों की शक़्ल कुछ और होती...। मैने तो जो देखा , जो भुगता , उससे एक ऐसी कड़वाहट घुल गई है मन में जो शायद ता‍उम्र धुल न पाए ।
             वहाँ पाँव धरते ही अपरिचित कष्ट से दो-दो हाथ...पहुँचते ही कराहते , धक्का खाते , इधर-उधर पस्त पड़े लोगों से सामना , आसपास खड़ी ढेर सारी कारें , टैम्पो , टैक्सियाँ...हर कोई हाँफता-काँपता , ढेर सारे सामानों से लँदा-फँदा...। यात्रा कितनी लम्बी है , कोई नहीं जानता । पड़ाव आएगा भी कि नहीं , कोई नहीं जानता । हम भी नहीं जानते थे...जानते थे तो सिर्फ़ इतना कि जल्दी से जल्दी वहाँ पहुँचना है । पर बावजूद इसके यह नहीं पता था कि ज़रा सी देरी हो जाने पर इस क़दर तपना पड़ सकता है चिटकती धूप में कि नानी याद आ जाए...।
             हम लोग अपनी समझ से सुबह के साढ़े तीन बजे ही टैक्सी से चल दिए थे पर वाह रे जाम...! रोज हज़ारों की संख्या में घटते हैं लोग , पर फिर भी इतनी भीड़...?
              कानपुर से लखनऊ पहुँचते-पहुँचते सात बज गए । टैक्सी सीधे जाकर पी.जी.आई के गेट पर रुकी । रजिस्ट्रेशन खिड़की से सटते हुए बाहर गेट तक एक लम्बी लाइन लग चुकी थी । उसे देखते ही हमारे पसीने छूट गए । आसमान पर सूरज अपने पूरे तीखे तेवर दिखा रहा था और नीचे हॉल में सिक्योरिटी गार्ड...। दोनो तरफ़ आग थी...।
              तीन घण्टे की यात्रा में हम लोग तो थक ही गए थे पर बहन का तो बहुत बुरा हाल था । उसकी पीली और कमज़ोर सी आँखों में एक ऐसी बेचारगी भरी थी कि उधर देखा नहीं जा रहा था । मेरी गोद में सिर और छोटे भाई की गोद में पैर रखे वह सोने का बहाना करती आई थी , पर बावजूद इसके , उसकी थकान साफ़ दिखाई पड़ रही थी । सुबह से न उसने कुछ मुँह में डाला था , न हमने...। वक़्त हाथ से सरकता जा रहा था । शायद उसे भी अहसास था , तभी हमारा सहारा लेकर वह धीरे से उठी , खिड़की के बाहर की लम्बी लाइन देखी और घबरा कर बोली ," दीदीऽऽऽ , घर वापस चलो...यहाँ तो तुम लोग भी बीमार हो जाओगी...।"
              " नहीं स्नेह...यह बहुत बड़ा अस्पताल है , यहाँ बहुत बड़े और अनुभवी डाक्टर हैं...वह तुम्हारा अच्छे से इलाज कर दें , फिर घर चलते हैं...।"
               " दीदी..." उसे बोलने में काफ़ी कष्ट हो रहा था फिर भी हमारी परेशानी , थकान , भूख-प्यास देख कर फुसला रही थी ," बड़ा तो रामा अस्पताल भी है , वहीं इलाज करा दो...। घर से दूर..." उसकी आँखें पता नहीं क्यों भर आई थी...शायद हमारी परेशानी को उसने भाँप लिया था ।
               आँखें तो हमारी भी भरी हुई थी पर हमने जबरिया भीतर की बरसात को रोक रखा था , उसे बरसने नहीं दिया । नहीं चाहते थे कि ऐसी गर्म बरसात के पानी में वह भीगे ।
               हमने पी.जी.आई के गेट से एक उचटती निगाह भीतर डाली और सहम गए । उफ़ ! इतनी भयानक भीड़...? क्या आधे से अधिक आबादी बीमार ही है ? इतने मरीजों के बीच क्या डाक्टर स्नेह पर ध्यान दे पाएगा ? कई सवाल हमारे भीतर काले-बदसूरत बादल की तरह उमड़-घुमड़ रहे थे , पर हमारे डाक्टर की बात ,"...रोग काफ़ी गम्भीर हो चुका है । पी.जी.आई ही एक ऐसा अस्पताल है जहाँ इसका इलाज हो सकता है...।"
               स्नेह ने एक घूँट पानी पिया और फिर हमारी गोद में लेट गई , सोने का बहाना करते हुए...। लगा , जैसे किसी ने कलेजा चाक कर दिया हो...। उसके घर जाती थी तो अक्सर दोपहर को वह आँख मूंदे लेटी हुई मिलती थी , पर जैसे ही हमें देखती , फटाक से उठ बैठती । पाँच-दस मिनट इधर-उधर की बातें करने के बाद सीधे रसोई में...। मेरा पसंदीदा नमकीन परांठा . अचार और चाय पल भर में मेरे सामने होता । एक तरफ़ नाश्ता करने का आग्रह करती जाती तो दूसरी तरफ़ आराम फ़रमा रही सबसे छोटी बहन गुड़िया पर बड़बड़ाती जाती ," यह बहुत आलसी हो गई है...यह नहीं कि कोई आ जाए तो उसे नाश्ता-पानी दे...।"
                             " दीदी ‘ कोई ’ हैं क्या...? और तुम कौन सी तीसमारखाँ हो...। मम्मी के समय तुम भी तो इसी तरह आराम फ़रमाती थी...। अरे , हमें सब याद है...।"
               " तो ठीक हैऽऽऽ...। मम्मी की तरह जब हम भी नहीं रहेंगे तो फिर हमारी जगह तुम घर सम्हालना...।"
                 बड़े-छोटे का भेद भूलकर घर के काम को लेकर अक्सर दोनो बहनों में छिटपुट तकरार होती रहती थी । उस समय तो मैं बात सम्हाल लेती ," अरे परेशान क्यों होती हो...अभी ही तो घर से खाकर आए हैं...।"
                 वह चुप हो जाती यह कहकर ," अरे दिया ही क्या है...? सिर्फ़ ज़रा सा नाश्ता ही न...। इसे यही समझाते हैं कि अभी से आदत डालो किसी को खिलाने-पिलाने की...हम कोई हमेशा तो बैठे नहीं रहेंगे...।"
                " क्यों...? कहीं जा रही हो क्या...?" एक ठहाका गूँजता और बात खत्म...।
                  उस ठहाके में मैं भी शामिल रहती पर आज उसकी बीमारी की गंभीरता को देखते हुए न जाने क्यों मन काँप रहा था और उसे देखते हुए सारी बातें याद आ रही थी । वह कहे हुए शब्द कहीं किसी आगम के संकेत तो नहीं थे...?
 

( जारी है )

Sunday, October 10, 2010

रोइए...कि आप नर्क में हैं

( किस्त छह )

 कानपुर का एक बड़ा नामी-दामी आस्पताल है - रामा हास्पिटल । यहाँ हर तरह की सुविधाएँ हैं...उच्च तकनीकों से युक्त मशीनें हैं...बड़े-बड़े अनुभवी डाक्टर हैं । कोई भी कमी नहीं है इस अस्पताल में । डाक्टर भी अपने पेशे के प्रति ईमानदार हैं । गरीब-अमीर यहाँ सब बराबर...उनकी जो देखभाल की जाती है , वह प्रशंसनीय है । पर कभी-कभी एक छोटी सी लापरवाही मरीज के परिजनों को किसी डाक्टर के प्रति किस तरह आक्रोश से भर देती है , यह वही महसूस कर सकता है जिसका कोई प्रिय ख़तरे में चला गया हो ।
          डाक्टर एस.के. कटियार , उम्र बहुत छोटी , पर अनुभव बहुत बड़ा । हमारे परिवार के दुर्भाग्यजनित रोग पथरी का उन्होंने चार सदस्यों का सफ़ल आपरेशन किया । जितना हमारा उनके ऊपर विश्वास बढ़ा , उतने ही वे सहज हो गए । पाँचवे आपरेशन के वक़्त वे इतने सहज थे कि उन्होंने आनन-फानन में अपने असिस्टेन्ट को बाहर भेज कर बहन को आपरेशन थियेटर में बुलवा लिया । उन्होंने मेरी किसी भी बात को गम्भीरता से लेने की कोशिश ही नहीं की ।
          घर से चलते वक़्त सब कुछ ठीक था पर अस्पताल पहुँच कर सहसा ही न जाने कैसे मेरी बहन की आँखों में एक गहरा पीलापन उतर आया । उस पीलेपन को देख कर मैं परेशान हो गई । उस परेशानी के चलते मैं अपनी बात बार-बार कह रही थी...नर्स से...असिस्टेन्ट से...। डाक्टर आए नहीं थे या अन्दर ओ.टी में थे , नहीं जानती थी । अन्दर जाना मना था । क्या असिस्टेन्ट का यह फ़र्ज़ नहीं था कि वह डाक्टर से मेरी बात कहता ? या क्या डाक्टर ने उसकी पीली आँखें नहीं देखी ? ये बहुत से ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब मुझे चाहिए ।
          आपरेशन के बाद किसी ने मुझसे कहा कि पीलिया में कभी भी आपरेशन नहीं कराना चाहिए...। आपरेशन से नसें खुल जाती हैं और खून में विषाक्तता घुल जाती है । पहले पीलिया का इलाज कराना चाहिए , फिर आगे की सोचे । पर कहते हैं न कि ‘ होनी बहुत बलवान होती है ’। इतनी कि बुद्धि को कुन्द कर देती है । अगर ऐसा न होता तो अपनी बहन को ओ.टी में जाने से मैं जबरिया रोक न लेती ?
          पेट के अन्दर चुपके से क्या पनप रहा है , कोई कैसे जान सकता है ? सदियों पहले तो कोई सुविधा भी नहीं थी । साथ ही शुद्ध चीजों के कारण रोगों की इतनी भरमार भी नहीं थी , पर आज ?
          जितने रोग बढ़े हैं , उतनी ही तकनीकी प्रगति भी , पर बावजूद इसके कुछ रोग इतने चुपके से पनपते हुए अपने ख़तरनाक मोड़ पर पहुँच जाते हैं कि कोई जान नहीं पाता...। अल्ट्रासाउण्ड , कैट स्कैनिंग या अन्य किसी तरीके से रोग पकड़ में आने पर सब कुछ डाक्टर के हाथ में चला जाता है । अब एक योग्य डाक्टर उसे दूर करने के लिए कितनी मशक्कत करता है , यह उसके स्वभाव और कर्तव्य-भावना पर निर्भर करता है , पर आज के इस आधुनिकीकरण के युग में कर्तव्य-भावना लगभग ज़ीरो हो गई है ।
          पीलिया में ही आपरेशन हो जाने के कारण स्नेह की ज़िन्दगी ख़तरे में पड़ गई । डाक्टर ने तरह-तरह की आशंका जता कर हम सब के मन में एक अनकहा-अनजाना भय तो बैठा दिया पर यह नहीं कहा कि उसके सही इलाज का रास्ता क्या है ? घर ले जाना उचित होगा या नहीं ? जिस आशंका को उन्होंने जाहिर किया , क्या उसके लिए उस अस्पताल में या इतने बड़े शहर में कोई भी योग्य डाक्टर नहीं था ?
          क्या आपरेशन करके , दो-तीन दिन अपनी निगरानी में रख कर डाक्टर का फ़र्ज़ पूरा हो गया ? परिजन डाक्टरी क्या जाने...आप उन्हें सही राय तो दे सकते थे । मैं डाक्टर से पूछना चाहती हूँ कि यदि उनके परिवार में कोई इस तरह फँस जाए तो वे क्या करेंगे ?
          पर डाक्टर ने तो आपरेशन करके अपना कर्तव्य निभा दिया । अस्पताल से यह कह कर छुट्टी भी दे दी कि अब जैसा चाहे , इलाज कराइए । साधारण पीलिया समझ कर उसका इलाज चलता रहा । किसी ने कुछ सलाह दी तो किसी ने कुछ...। रोग बढ़ता जा रहा था और उसके साथ हम सब के समझने की शक्ति भी गुम होती जा रही थी ।
          कहते हैं कि मुसीबत के समय ही आदमी की परख होती है । सुख के समय जो भीड़ आपके साथ खड़ी होगी , दुःख के समय वह भीड़ कब छँट गई , आपको पता भी नहीं चलेगा...और जब पता चलेगा तो आप पाएँगे कि आप तो बिल्कुल अकेले हैं...। जिसके लिए आपने बहुत कुछ किया , वह भागदौड़ की मेहनत और पैसा खर्च होने के भय से गायब हो जाएगा । पर बावजूद इसके , जब अपना दिमाग़ काम करना बन्द कर देता है तो किसी सशक्त सहारे की बहुत ज़रूरत होती है ।
          ऐसे में डाक्टर अनूप अग्रवाल के रूप में हमें एक ऐसे इंसान मिले जो इलाज के साथ-साथ दूसरों की मदद करने को भी तत्पर रहते हैं । वे हमारे परिवार के लिए बहुत बड़ा सम्बल थे । उन्होंने रोग को हाथ से बाहर जाते देख पी.जी.आई रिफ़र कर दिया , पर शायद उन्हें भी आभास नहीं था कि अनजाने ही उन्हों ने एक इंसान को जीते-जी नर्क की ओर धकेल दिया है...।
          ‘ संजय गाँधी पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ’...जितना भारी-भरकम नाम है , उतना ही भारी-भरकम इसका डील-डौल भी है । जिस समय संजय गाँधी के नाम पर इसकी स्थापना की गई थी , सरकार ने जनता से बहुत बड़े-बड़े वायदे किए थे । देश के नामी-गिरामी ( अब गिरहकट् ) डाक्टरों को जगह दी थी , शानदार और जानदार उसका ढाँचा खड़ा किया था व और भी कई ऐसी सुविधाएँ तकनीकी रूप से इस अस्पताल को मुहैया कराई जो कम-से-कम उत्तर प्रदेश के अस्पतालों में उस स्तर तक नहीं थी । सरकार के इस कदम से जनता में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई । अब कम-से-कम गम्भीर रोगों के लिए अपने घर से दूर दिल्ली-मुम्बई तो नहीं जाना पड़ेगा । जिस मर्ज़ का इलाज अपने शहर में नहीं , वह यहाँ है और वह भी कम खर्च में...। कम खर्च में खाने-रहने की भी व्यवस्था...। आसपास न जाने कितने होटल , मोटल खुल गए...एक आश्रम की भी स्थापना हुई । अस्पताल में ही कैण्टीन है यानि खाने के लिए परिजनों को परिसर से बाहर जाने का कष्ट नहीं उठाना पड़ेगा । ( अब यह बात दूसरी है कि कैण्टीन का खाना जल्दी गले से नहीं उतरता , पर कोई भूखा रह कर अपने प्रिय मरीज के साथ मर तो नहीं जाएगा न...सो मजबूरी में पेट भर लिया जाता है...। )
             आह ! और वाह ! के साथ टूटे हुए लोगों की भीड़ उधर खिंचने लगी । वाह ! उत्तर प्रदेश की शान लखनऊ और वहाँ की...? पी.जी.आई...। ‘ मुस्कराइए कि आप लखनऊ में हैं...’ पर जनाब , रोइए भी कि आप पी.जी.आई में हैं । आज ये अस्पताल लखनऊ का कलंक बनने की ओर पूरी तौर से अग्रसर् है । अफ़सोस...सरकार की नाक के नीचे ये नर्क फल-फूल रहा है और उन्हें सुध नहीं...?
             पर इसमें उनका क्या दोष ? सरकारी कामकाज़ का भारी-भरकम बोझ और विपक्षी नेताओं का वार उन्हें इतनी फुर्सत ही नहीं देता कि वे तड़पते-कलपते मरीजों और उनका इलाज करते आकाओं (?) की सुध ले सकें । अब यह बात दूसरी है कि किसी आला अधिकारी के आने पर वहाँ ऐसा शानदार भूकम्प आता है कि सब कुछ उल्टा-पुल्टा होने की बजाय सीधा-सीधा हो जाता है । वी.आई.पी कमरे तक जाने का रास्ता हो या आसपास का वातावरण...सब साफ़-सफ़ाई , रंग-रोगन से लेकर खुशबुओं से इस क़दर भर जाता है कि हमारे वी.आई.पी ही नहीं , कुछ पल के लिए मरीज के परिजन भी भावविभोर हो उठते हैं और ये भूल जाते हैं कि इस धरती पर जगह की कमी की वजह से एक ही जगह को दो हिस्सों में बाँट दिया गया है...आधा नर्क...आधा स्वर्ग...।
            पर यह स्वर्ग-दर्शन कुछ ही दिनों का होता है । वी.आई.पी स्वस्थ तो बाकी अस्वस्थ...फिर नर्क में रहो...। कोई पूछने नहीं आएगा कि भैया , कितने महीनों से इस नर्क में हो और कब इससे मुक्ति मिलेगी...?
            पी.जी.आई में जब स्नेह को लेकर गए तो एक तरह से कमरे के लिए , बेड के लिए गिड़गिड़ाना ही पड़ा , पर बावजूद इसके , किसी का भी दिल नहीं पसीजा । उनके पास सिर्फ़ बहाना ही था...कोई कमरा खाली नहीं...जनरल वार्ड में भी कोई बेड नहीं...। बहन की गम्भीर हालत में भी उसे लेकर दो दिन होटल में गुज़ारने पड़े । पी.जी.आई की इस तथाकथित व्यस्ततम हालत के बारे में जानती तो शायद वहाँ का रुख़ कभी न करती...।
            आज सोच कर दिल काँप जाता है कि वह वक़्त हमने कैसे गुज़ारा ? बहन की चिन्तनीय स्थिति...कानपुर से तीन घण्टे का सफ़र...सुबह चार बजे के बाद से मुँह में अन्न के एक भी दाने का न जाना...सात बजे के पहुँचे बारह बजे तक रजिस्ट्रेशन हो पाना और फिर डाक्टर के कमरे के बाहर मरीजों की लम्बी लाइन...। पसीने से गंधाता पूरा वातावरण...भीषण कराहट के साथ पथराती आँखें...साथ आए रिश्तेदारों की बेचैनी और इससे ज़्यादा मरीज की पस्त होती हालत...। उफ़ ! यह दशा सिर्फ़ हमारी ही नहीं थी । न जाने कितने अनजाने सांझे दुःख के भागीदार बन गए थे ," बहन जी , उन्हें क्या हुआ ? " सारी कहानी दोहराई जाती और् उस कहानी के दरमियान रोगी की आशा-निराशा के बीच कभी झूलती तो कभी स्थिर होती आँखें...। लगता , जैसे एक सवाल उसकी आँखों में आँसू की बूँद की तरह ठहर गया हो ," क्या होगा मेरा ? अगर मुझे कुछ हो गया तो क्या होगा मेरे परिवार का...? कहीं मेरी दुर्दशा तो नहीं होगी...?"
            मेरी बहन का सिर मेरी गोद में था...। सुबह से बिना कुछ खाए-पिए एक मासूम बच्ची सी दिख रही थी वह और हम सबके पूरा साथ देने के बावजूद जैसे एकदम अनाथ - असहाय सी...। नाथ (ईश्वर) जिसका साथ छोड़ दे , वह अनाथ ही तो हो जाता है...।
            पर वह वहाँ अकेली तो नहीं थी । न जाने कितने अनाथों की आँखों में मेरी बहन की हल्दी-घुली आँखों की तरह ही एक अबूझा सवाल अटका हुआ था ," मेरा क्या होगा , और...?"


( जारी है )

Thursday, October 7, 2010

रोइए...कि आप नर्क में हैं

( किस्त  पांच )


हम सारी ज़िन्दगी अपने बड़ों से यही बात सुनते आ रहे थे कि " तन्दुरुस्ती हज़ार नियामत है..." बावजूद इसके हम तरह-तरह की बीमारियों से ग्रसित होने पर मजबूर हैं । हमें पता ही नहीं चलता और शरीर के भीतर ‘ साइलेंट किलर ’ अपना काम दिखा देता है...। तन के बाहर की बीमारी अक्सर आसानी से पकड़ में आ जाती है पर अन्दर के कुछ रोग बड़े चुपके से पनपते हैं औए आदमी जब तक कुछ समझ पाता है , उसकी जान पर बन आती है...।
            गाँवों की बात छोड़ दीजिए...शहरों में भी स्वास्थ्य सेवाएँ और उत्कृष्ट तकनीक विकसित होने के बाद भी लापरवाही के चलते कभी प्रसव के दौरान तो कभी कैंसर तो कभी अन्य गम्भीर रोगों के कारण न जाने कितने लोग मौत के मुँह में समा जाते हैं ।
            विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक " स्वास्थ्य का अर्थ मात्र निरोग होना नहीं है , बल्कि मानसिक और शारीरिक तंदुरस्ती का संतुलन होना है ।"
            संगठन की बात पूरी तरह् दुरुस्त है पर बढ़ती मँहगाई , प्रदूषण से बढ़ती शारीरिक और मानसिक विकृति , एकल परिवार की समस्याएँ और सबसे बड़ी बात , दुनिया में असंख्य उपायों के बावजूद भीड़ का बढ़ते चले जाना इन्सान को अस्वस्थ बना रहा है । हर तरह से स्वस्थ रहने के लिए आदमी मेडिटेशन , योग , सुबह की सैर , कसरत...सब कुछ कर रहा है , पर परेशानी के बादल हैं कि छँटते ही नहीं...।
            इसी सन्दर्भ में कभी प्रदेश के सेवानिवृत स्वास्थ्य निदेशक डा. रामबाबू ( २४ अप्रैल् , २०१० ) ने बड़ी नेक सलाह् दी थी (कुछ करने की पहल नहीं ) कि चिकित्सीय उपचार से पहले पोषण , स्वच्छता , पर्यावरण पर ध्यान दिया जाए तो कैंसर , मधुमेह , हृदयरोग , मोटापा , कई नान-कम्यूनिकेबिल डिज़ीज़ ( गैर संचारी बीमारियों ) से बचा जा सकता है । वाह निदेशक महोदय ! बचने की बड़ी नेक सलाह दी है - पोषण- पर यह तो बताइए कि पोषण करें कैसे ?
            आज खाद्य वस्तुओं में इतने धड़ल्ले से मिलावट की जा रही है , खाद्यान्नों में कीटनाशकों का छिड़काव ज़रूरत से ज्यादा है , बेमौसम सब्जियों की ग़लत तरीके से उपलब्धता है और यही नहीं , अब तो मेवे भी इसकी चपेट में हैं । किसी टी.वी चैनल पर दिखाया गया था कि गंधक से छुआरे और काजू को बड़ा व चमकीला बनाया जाता है । इन्हें रोकने के लिए छापे भी पड़े पर होगा क्या ? हमेशा की तरह सब टाँय-टाँय फिस्स...हम फिर ज़हर खाने को मजबूर...। कुछ चन्द रिश्वतख़ोर लोग न खुद चैन से जीते हैं न हमें जीने देते हैं । आम , केला , सेब , खरबूज़ा...सारे फल भी ज़हर हो गए हैं...आदमी कैसे सेहत बनाए...?
             साँसों में ज़हर घुल रहा है और पानी ? वह भी तो ज़हरीला है । पहले गंगा का जल इतना साफ़ और पवित्र था कि उसके पीने से ही कई बीमारियों का अन्त हो जाता था , पर आज गंगा में पड़े जानवरों , आदमियों के शव , कूड़ा-कचरा , उसमें गिरता नाले का गन्दा पानी , फ़ैक्ट्रियों-टैनरियों का ज़हरीला रसायन ,और भी पता नहीं क्या-क्या...। सरकारी विभागों की लापरवाही कई बार इन्सान को ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर देती है , जहाँ से रास्ता सीधे मौत की ओर जाता है...। गंगा की सफ़ाई का अभियान अक्सर चलता है , पर जब कुछ लोग सिर्फ़ अपनी भलाई सोचते हैं तो दूसरा चाहे जिए या मरे...उनका क्या ? भ्रष्टाचार ने ज्यादातर लोगों की आँखें बन्द कर रखी है । उनकी नींद तब खुलती है जब खुद उनपर ही ग़ाज़ गिरती है । हमारी सरकार आम आदमियों से ही बनी है पर उनके लिए है नहीं ।
            आम आदमी का खुद पर से भरोसा उठ गया है तो गानों के माध्यम से ख़ुदा का पता पूछ रहा है ( ऐ ख़ुदा , मुझको बता...तू रहता कहाँ , क्या तेरा पता...?) , पर शायद पता पूछने वाला यह नहीं जानता कि उस तक पहुँचने का रास्ता आसान नहीं रह गया है...।
            पहले के हमारे बढ़े-बूढ़े शुद्ध चीजें खाकर , अपनी पूरी उम्र जीकर खुशी-खुशी ईश्वर के पास जाते थे , पर अब उम्र पूरी भी नहीं हो पाती कि ईश्वर तक पहुँचने के रास्ते पर खड़े ‘ यम ’ उन्हें बीच में ही लपक लेते हैं और फिर नर्क का रास्ता दिखा देते हैं । ये ‘ यम ’ इतने भयानक हैं कि ईश्वर भी जैसे पीछे हट जाता है , फिर आदमी की बिसात ही क्या ? मरे क्या न करे भाई ? शक्तिशाली बन्दा ईश्वर के दर्शन करके भी अपनी लक्ज़री गाड़ी से वापस आ जाता है , एक और स्वस्थ ज़िन्दगी जीने के लिए पर कमज़ोर-असहाय तो इस वाक्य को भूल ही गया है कि " सेहत ही सबसे बड़ी नेमत है "। उसे अब याद है तो बस इतना कि ज़िन्दा रहने के लिए , यमों की यातना से बचने के लिए और चिन्ता-चिता से उठकर वापस अपने डेरे पर जाने के लिए जिन बातों की ज़रूरत पड़ती है वह है- अपार धन , सोर्स , राजनैतिक-सामाजिक शक्ति , सरोकार तथा गहन जानकारी...इनके अभाव में यातनाभरी मौत पक्की...।
            कितने लोग...? शायद लाखों-करोड़ों लोग भरसक इस अंधेरी , यातनाभरी सुरंग से बाहर आने की कोशिश करते हैं पर उपरोक्त चीजों के अभाव में बाहर आने से पहले ही दम तोड़ देते हैं । सिर्फ़ उपरोक्त बातें ही क्यों...आज के इस प्रगतिशील और तकनीकीकरण के इस युग में मुन्नाभाई छाप डाक्टरों की बढ़ती तादाद , उनकी धन-लोलुपता , संवेदनहीनता , सरकारी अस्पतालों की लापरवाही , कुव्यवस्था आदि इसके लिए और भी ज़िम्मेदार हैं । काश ! ख़ुदा एक बार तो इनसे कहे कि कभी तुम्हारे ऊपर भी ग़ाज़ गिर सकती है ।
            रही सरकार की बात...वह तो मासूम है...। उसे तो गोबरछत्ते की तरह उगी विपक्षी पार्टियाँ ही इतना अधिक परेशान किए रहती हैं कि वह करे तो क्या...? कीड़े-मकोड़ों की सुरक्षा करे कि अपनी कुर्सी बचाए ? जनता खुद समझदार है...अपनी सुरक्षा स्वयं क्यों नहीं करती...?
           मूर्ख जनता में हम भी तो शुमार हैं । अपनी रक्षा नहीं कर पाए और हमारा एक प्रिय ‘ यम ’ के चंगुल में फँस कर अंधेरी सुरंग में कहीं खो गया...।
           भ्रम में थे । घर में पानी को शुद्ध् करने के लिए वाटर प्योरिफ़ायर लगा था...अच्छे स्टोर से राशन आता था...दूषित फल-सब्ज़ी से भरसक दूर रहते...परिवार में कोई बुरी लत नहीं...। दूसरों की बीमारी की गंभीरता को भाँप कर सहम से जाते और ईश्वर से प्रार्थना करते कि ऐसी मुसीबतों से हम किसी तरह् बचे रहें...। पर यह जो तन है न , उसका कोई न कोई पुर्जा जाने-अनजाने खराब हो ही जाता है । लाख कोशिशों के बावजूद होनी से टक्कर लेना कठिन हो जाता है । होनी बहुत बलवान है । इसे हम सब ने महसूस किया है...उसी दिन से...उसी क्षण से...।
          हाथ में प्लास्टर चढ़ने के चन्द दिनों बाद ही उसकी कमर व पीठ में तीव्र दर्द रहने लगा । सोचा शायद गिरने की धसक की वजह से ऐसा है...। दर्द लगाता बढ़ता ही जा रहा था । चिन्तित हो अल्ट्रासाउन्ड करवाया तो पता लगा कि गॉल ब्लेडर ( पित्त की थैली ) में पथरी है...पथरी ?
         पत्थर हो चुके इस युग की यह सबसे बड़ी देन है । हर दूसरे-तीसरे घर में सुनाई पड़ता है कि फलां को पथरी है...उसका आपरेशन हुआ है । ज़्यादातर लोग इससे सुरक्षित ही निकल आते हैं , शायद भविष्य में किसी दूसरी बीमारी से मरने के लिए...और जो नहीं निकल पाते , वे कभी भाग्य को तो कभी डाक्टर को कोसते हुए चले जाते हैं किसी अनन्त यात्रा पर...। पथरी का आपरेशन कराओ तो मुश्किल...न कराओ तो और भी मुश्किल...। आपरेशन कराने पर न सौ प्रतिशत , पर फिर भी चाँस तो रहता है बच कर बाहर आने का , पर उसे नज़र-अन्दाज़ कर देने पर तो भविष्य में और भी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है । किडनी की पथरी तो दवा से निकलती सुनी है , पर पित्त की थैली के लिए ऐसी कोई कारगर दवा है , नहीं जानती पर इतना समझती हूँ कि अगर होती तो हज़ारों की संख्या में मरीज डाक्टरों की क्लीनिक में लाइन न लगाते...।
         एक आम इंसान के लिए यह समझना मुश्किल है कि शरीर के भीतर इतने पत्थर इकठ्ठे कैसे हो जाते हैं ? कोई कहता है इसके लिए गंदा पानी ज़िम्मेदार है , तो कोई मिलावटी खाने को इसका कारण बताता है...। अभी हाल ही में मेरे एक परिचित को एक डाक्टर ने सलाह दी कि बन्द डिब्बे का सरसों का तेल खाना बन्द कर दीजिए...। मिलावटी खाद्यान्न...दूषित पानी...ज़हरीली हवा...किस-किस से बचा जाए...? आज इस प्रदूषित समाज में सभी जी रहे हैं पर हर किसी को एक ही रोग तो नहीं जकड़ता । मैं समझती हूँ कि हर किसी के स्वभाव की तरह ही उसके तन की प्रकृति भी होती है...और इसी कारण वह अलग-अलग रोगों की जकड़ में आते हैं । सावधानी कुछ हद तक सुरक्षित कर सकती है , पर पूर्णतया करेगी ही , इसकी कोई गारण्टी नहीं...।
          कोई भी आपरेशन करने से पूर्व मरीज की ज़िन्दगी की गारण्टी डाक्टर भी नहीं लेता और इसी लिए परिजनों से एक फ़ार्म भरवा लिया जाता है ।
          मेरी शिकायत गारण्टी लेने या न लेने पर नहीं है...रंज इस बात का भी नहीं है कि किसी आपरेशन में वे असफ़ल हो गए क्योंकि कोई डाक्टर जानबूझ कर अपने नाम पर बट्टा नहीं लगने देगा और न यह चाहेगा कि उसका मरीज ज़िन्दगी का दाँव हार जाए ।
          मेरा आक्रोश उन डाक्टरों पर है जो ढेर सारे सफ़ल आपरेशन करने के बाद इतने आत्मविश्वासी हो जाते हैं कि उनके लिए तन के किसी भी हिस्से की काँट-छाँट बेहद मामूली बात हो जाती है और अतिरिक्त उत्साह में भर कर अनजाने ही वे बीमार की ज़िन्दगी से खेल जाते हैं । क्या डाक्टरों को यह् बात पता नहीं होनी चाहिए कि हर इंसान की शारीरिक और मानसिक प्रकृति अलग-अलग होती है और इसी के तहत उस पर बीमारी की प्रतिक्रिया भी होती है । डाक्टरों को इसी बात का ध्यान रखते हुए मरीज की पूरी केस हिस्ट्री ही नहीं बल्कि विगत में उसे क्या परेशानी थी , इस बारे में भी आपरेशन पूर्व जान लेना चाहिए ।
          हर डाक्टर का यह फ़र्ज़ बनता है कि आपरेशन थियेटर में ले जाने से पहले मरीज का एक बार पूरा परीक्षण कर ले । जो ऐसा नहीं करते , उन्हें कुरेदने-कोसने का पूरा अधिकार है हमें...।

( जारी है )